हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय 'उनके लिए यद्यपि यह एक साधना मात्र है किंतु तो भी यह उनके लिए अपने अभीष्ट से किसी प्रकार कम नहीं । यह दूसरी बात है कि इसके द्वारा उसे ईश्वर के साथ संयोग होता है और उसे सांसारिक दुखों से निवृत्ति भी हो जाती है। प्रेमी अपने प्रियतम का नाम लेने में उतना अनुरक्त रहा करता है कि उसे उस बात की और कभी ध्यान ही नहीं जाता कि उसका परिणाम उसके लिए क्या होगा? यही कारण है कि उसे सांसारिक दुखों का अनुभव नहीं हुआ करता। उसकी इच्छाएँ और उसकी श्राशाएँ सभी अपने प्रियतम में केन्द्रित रहा करती हैं। उसके अतिरिक्त उसे कोई भी अभिलाषा वा अाशा नहीं और दुख भी अतृप्त वासनाओं और भग्न आशाओं के अतिरिक्त हो ही क्या सकता है ? नाम सुमिरन जिसे हम 'मन्त्र योग' भी कह सकते हैं 'सुरति शब्द योग' का ही एक दूसरा रूप है और इस प्रकार वह सारे योगों का भी योग है । भक्तियोग, राजयोग, मंत्रयोग, कर्मयोग, लययोग, हठयोग एवं ज्ञानयोग भी उसी के विविध रूपांतर कहे जा सकते हैं । सभी के आधारभूत सिद्धान्त इसके भीतर पा जाते हैं। अपनी प्रारंभिक दशा में यह मंत्रयोग है जो राजयोग-द्वारा अनुप्राणित रहा करता है और अपनी अंतिम दशा में यही ज्ञानयोग है जिसमें उस निर्विकार के वास्तविक स्वरूप की अनुभूति प्राप्त होती है । इसके लिए उस निरपेक्ष परमात्मा की सत्ता में अपनी सत्ता को भान करना पड़ता है। 'लययोग' वह है जिसे निर्गणी 'लौ' की संज्ञा देते हैं। अब तक कही गई बातों-द्वारा पूर्णतः स्पष्ट हो गया होगा कि इन सब की सिद्धि एक प्रकार की प्रेम-साधना-द्वारा होती है। यहा भक्तियोग है जिसे दुहराने की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं है। इसके हठयोग एवं कर्मयोग वाले रूपों के विषय में अब हम इस अध्याय के अगले प्रकरणों द्वारा विस्तार के साथ प्रकाश डालेंगे।
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