चतुर्थ अध्याय २२३ के कारण अव्यक्त जाप का नाम दिया है। इसके द्वारा स्वयं प्रात्मा उद्बुद्ध हो जाती है और भीतरी ईश्वरीय भावना के समक्ष अपने श्रापको प्रत्यक्ष एवं अबाधित रूप से समर्पित कर देती है। जब मन में मस्ती आ गई तो फिर मुख से शब्दोच्चारण की आवश्यकता ही कहाँ रह गई ? क्योंकि यदि सचमुच प्रेम ने हृदय और आत्मा पर अधिकार कर लिया तो प्रत्येक छिद्र ईश्वर का गुणगान प्रापसे श्राप करने लगेगा 8 जब यह दशा दृढ़ तथा स्वाभाविक हो जाय और दूसरे शब्दों में यही जीवन का एक मात्र उद्देश्य अथवा जीवन का भी जीवन बन जाय तो समय पाकर, वह अनहद शब्द भी सुन पड़ने लगता है जो स्वयं ईश्वर स्वरूप है और व्यक्ति इस बात का अनुभव करने लगता है कि यद्यपि उसने भगवान् को भुला दिया है किन्तु उसने मुझे विस्मृत नहीं किया है, क्योंकि वह, सदा उसके भीतर शब्दोच्चारण करके उसे अपना स्मरण दिला रहा है । जैसा मलूकदास ने कहा है-“मैं राम कहने के लिए न तो माला का प्रयोग करता हूँ और न जीभ ही हिलाता हूँ, मुझे मेरा मालिक स्वयं स्मरण करता है और मैंने अब विश्राम ले लिया है।" और तब सुरति स्मरणेन्द्रिय के रूप में नहीं रह जाती, बल्कि अपने को
- मन मस्त हुआ तब क्या बोले ।
सं० बा० सं०, भा॰ २, पृ० १७ । अंतर्गति हरि हरि करै, मुख की हाजति नाहिं । सहज धुन्न लागी रहै, दादू मन ही माहिं । सं० बा० सं०, भा० १,प. ४४ ॥ + माला जपों न कर जपों, जिभ्या कहों न राम । सुमिरन मेरा हरि करै, मैं पाया बिश्राम ॥ वही, पृ० १००।