चतुर्थ अध्याय २१३ । • गुरु को इस बात में सदा सावधान रहना चाहिए कि उसके उपदेश जिनके अनुसार वह अपने शिष्य को चलने की शिक्षा देता है स्वयं उसके भी अपने कार्यों के साथ मेल में रहें ताकि उसका शिष्य उसकी सचाई के प्रति किसी प्रकार संदेह में न पड़ जाय । इसके साथ ही साथ शिष्य के लिए यह भी समझ लेना आवश्यक है कि उसका गुरु उससे कहीं ऊँची श्रेणी का व्यक्ति है और जो कुछ वह करता है वह उस शिष्य की वर्तमान प्रगति की स्थिति में, कदाचित् बाध्य न होगा। अतएव चरनदास ने सलाह दी है, “जो कुछ गुरु कहता है उसे करते जाओ, किंतु जो कुछ वह करता है उसकी नकल करने का प्रयत्न न करो।" परन्तु यहाँ इस बात का भय है कि धूर्त लोग इस उपदेश से नितांत विपरीत अभिप्राय निकाल लेंगे। इसके द्वारा कभी-कभी वैसे कई कार्यों के करने का बहाना मिल सकता है और मिला भी होगा जिसे एक साधु के लिए करना उचित नहीं और इस धारणा के कारण कि गुरु परमेश्वर का अवतार होता है, अनेक प्रकार के अनर्थों की वृद्धि हो सकती है। मैंने अंतिम अध्याय के अवतारवाले प्रकरण में इस विषय पर कुछ विचार किया है। मानव-पूजा के परिणाम स्वरूप होनेवाली हानि के अतिरिक्त, निर्गुण पथ के अनुसार गुरु के सर्वोच्च पद ग्रहण करने में एक यह भी भय बना रहता है कि उसका कहीं दुरुपयोग न हो जाय । बहुत से धूर्त, गुरुवत् आचरण करने के लिए केवल इसी कारण प्रवृत्त होते हैं कि उसके द्वारा बहुत बड़ा लाभ उठायें । इसमें संदेह नहीं कि ऐसी बात अनेक बार हुई होगी । ऐसा भी इसके कारण, हुआ होगा कि बहुत से लोग जिन्हें पंथ के प्रति सहानुभूति रह सकती थी इसके विरुद्ध हो गये होंगे।/ पल्टू ने जान पड़ता है, ऐसी ही घटनाओं की ओर संकेत करते हुए कहा है-"ज्ञान या ध्यान के विषय में किंचित्मात्र = गुरू कहें सो को जिये, करें सो कीजे नाहिं । वही, पृ० १४४ । .
पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२९३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।