. चतुर्थ अध्याय २११ हो तो उसकी दया के पात्र बिना मोल के ही हो जाते हो। उसका प्रसन्न होना बड़े लाभ की बात है क्योंकि वह सत्पुरुष है और उसकी दया उसके हाथ की ही बात है।" मानसिक सेवा गुरु के दर्शन करना, उसकी बातों को श्रवण करना और उपलब्ध बातों को सावधानी के साथ सुरक्षित रखकर उन पर मनन करना है) गुरु ने अच्छी बातों को चुन लेकर और बुरी बातों का त्याग कर उनका सार निकाल रक्खा है और उन बातों को अपने मन-द्वारा ग्रहण कर लेने पर, जिनसे पुष्टि प्राप्त करना नितांत आवश्यक है, संसार के सारे भय तथा लज्जा के भाव सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं।" इसमें संदेह नहीं कि शिष्य को वे सारी सेवाएँ जो उपर्युक्त उद्धरण में कही गई हैं करनी होंगी और उनमें से, यदि केवल वह छोड़ दी जाय जो गुरु की पीक पी जाने से सम्बंध रखती है तो भी गुरु उन सेवाओं की कोई अपेक्षा न करे और न उनके लिए किसी प्रकार की श्राज्ञा ही प्रदान करे । जब वे सेवाएँ की जाने लगे तो गुरु को चाहिए कि उन्हें स्वीकार करने से भरसक इंकार करे और ऐसा करते समय अपनी अच्छी मनोवृत्ति का ही परिचय दे। उसे अपने शिष्य को इस बात का भी उपदेश देना चाहिए कि वह अपने धन का किस प्रकार सदु- पयोग करे। शिष्य को गुरु के द्वारा व्यय कराने की आवश्यकता नहीं। जो गुरु उक्त सेवाओं को अपने शिष्य से स्वीकार कर लेता है और चाहता है कि वे उसके लिए की जाय वह, वास्तव में, सच्चा आध्यात्मिक गुरु न होकर एक विचित्र जीव है जिसमें श्रालस्य, लालच व अभिमान की मात्रा भरी हुई है जिनके कारण वह अपने शिष्य का जीवन-लहू एक राक्षस के रूप में चूसा करता है। अतएव गुरु एवं शिष्य दोनों को ही त्याग-वृत्ति के साथ रहना चाहिए। शिष्य का कर्तव्य है कि वह अपना सारा ऐश्वर्य, मान एवं धनादि की, जो उसके पास में हो अपने गुरु के चरणों में चढ़ा दे, किंतु उधर
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