चतुर्थं अध्याय "२०७ प्राध्यात्मिक शक्ति में उत्तेजना लाने के लिए उनके साथ केवल कभी-कभी संसर्ग में आने से ही काम नहीं चल सकता । उन्हें ४. पथ-प्रदर्शक एक ऐसे डायनमो की आवश्यकता है जो उन्हें अनवरत रूप में अभीष्ट विद्युत् शक्ति की धारा पहुँचाता रहे। उसे चाहिए कि किसी एक साधू विशेष के साथ सदा के लिए संबंध स्थापित कर ले जिससे वह अपनी आध्यात्मिक साधना में बाधा उपस्थित होने की कभी आशंका श्राने पर, पथ-प्रदर्शन की सहायता प्राप्त कर सके। साधुओं की संगति को 'सत्संग' का नाम दिया जाता है. और वह वस्तुतः गुरु अथवा मार्ग-प्रदर्शक की खोज में ही किया जाता है। बिना गुरु की सहायता के कोई प्रत्यावर्तन की यात्रा कर ही नहीं सकता, क्योंकि साधक को इस बात की कौन सी गारंटी है कि वह ठीक राह पर चल रहा है जब तक उसे कोई व्यक्ति निश्चित मार्ग से विपथ होते समय बतला न दे। उसके साथ सदा एक ऐसा व्यक्ति रहना चाहिए जो उक्त यात्रा को स्वयं पूर्ण कर चुका हो और जो उसके कष्टों तथा सुखों से अभिज्ञ भी हो-“यदि कोई वस्तु किसी एक स्थान पर पड़ी हो और तुम उसे दूसरी ओर ढूंढ़ रहे हो तो तुम्हें वह कैसे मिल सकेगी! तुम उसे तभी पा सकते हो जब तुम्हारे साथ एक ऐसा मनुष्य रहे जो उसके रहस्य से परिचित हो ।" "अध्यात्म का बीज जो धरती में पहले से मौजूद है तभी फूल ला सकेगा और फल भी देगा जब गुरु बादल की भाँति श्राकर उस पर अवसर के अनुकूल अपने उपदेशों की वृष्टि कर दे।"x 9 वस्तु कहीं ढूं. कहीं, केहि बिधि आवै हाथ । कह कबीर तब पाइए, भेदी लीजे साथ ॥३१४, क० बा०, पृ० ३२ । x गुरुं आये घन गरज करि, सबद किया परकास । बीज पड़ा था भूमि मैं, भई फूल फल आस । स० बा० सं० १, पृ० १२५ ।
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