। चतुर्थ अध्याय २०३ कि-"मैंने समझा था कि तुम प्रेमरस में मग्न हो और भगवान् में लीन रहा करते हो, किंतु देखता हूँ कि यह सच नहीं है ; तुम तो मेरे मुंह से निकली हुई हल्की साँस के स्पर्श से ही सर्प की भाँति जग उठे हो।" 'दूसरों की धारणा को अपने प्रतिकूल कर देने की यह प्रवृत्ति जो मनुष्य में लक्षित होती है, कबीर के अनुसार सिद्ध कर देती है कि, उसे अपनी वासना, इच्छाशक्ति एवं कल्पना पर अधिकार नहीं है जिससे स्वयं अपने ही बन्धन के लिए वह एक जाल सा बुन लिया करता है। सच्चा • साधू वही है जिसने इन शक्तियों को अपने वश में कर लिया है। ऐसा साधू ही सबके साथ समान व्यवहार कर सकता है चाहे कोई उसके निकट सत्भाव और सम्मान लेकर श्रावे और चाहे ईर्ष्या वा अपमान प्रदर्शित करने की नीयत से कीचड़ उछालता हुआ। दूसरे लोगों के लिए दोनों प्रकार के व्यवहारों में महान् अन्तर जान पड़ता है, किन्तु सच्चे साधू को दृष्टि में इनका कोई भी महत्त्व नहीं। साधू दोनों के प्रति समान सद्भाव प्रदर्शित करता है। यह दूसरी बात है कि जो मनुष्य विद्वेष की भावना के साथ श्रावेगा वह उससे कोई लाभ न उठा सकेगा। यह उसका दुर्भाग्य है कि यद्यपि उसके समक्ष स्वर्गीय ऐश्वर्य पड़ा हुआ है तो भी वह उसमें से एक साधारण अंश का भी उपभोग नहीं कर सकता। कबीर का कहना है कि-'साधू को रत्नों से भरा हुआ समुद्र समझो,अभागे उसमें हाथ डालते हैं तो उन्हें बालू व कंकड़ ही मिला करता है । - हम जाना तुम मगन हौ, रहे प्रेम रस पागि । रंचक पवन के लागते, उठे नाग से जागि ।। ३६५ ॥ क० बा०, पृ० ३७। - साधु समुंदर जानिए, याही रतन भराय । मंद भाग मूठी भरै, कर कंकर भरि जायें ।। ३४३ ॥ वही पृ० ३५ ।
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