२०० हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय प्रेम का प्रादुर्भाव होता है, साधु की संगति मालिक की कृपा का ही परिणाम है " / इस प्रकार इहलौकिक मानव के लिए साधुओं के महत्व का बहुत बड़ा बिस्तार है। साधु भगवान् से भी अधिक महत्वपूर्ण है। "साधु का दर्शन स्वयं भगवान् के ही दर्शन के समान है, दोनों में कुछ भी अंतर नहीं। साधु एवं साहिब ये दोनों मनसा वाचा कर्मणा एक ही हैं।"x और कबीर फिर और जोरों के साथ कहते हैं कि - "हरि से प्रेम करने की अपेक्षा हरिजन से ही प्रेम करो । हरि तुम्हें धन दौलत देंगे, किंतु हरिजन तुम्हें स्वयं हरि को ही दे देगा।" ऐसे भी लोग हैं जो किसी प्राकृति के बिना काम नहीं चला सकते, उन्हें वंदन व पूजन के लिए मूर्ति की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे लोगों के लिए कबीर का उपदेश है कि वे मूर्ति की जगह साधु को ही समझ लेवें। इस प्रकार, उनके अनुसार, उन्हें उस रूप की उपलब्धि २. साधु मिले तब,ऊपजे, हिरदय हरि का हेत । दादू संगति साधु की कृपा करे तब देत ॥ १६ ।। वही पृ० १५६ । x साधु मिले साहिब मिले, अंतर रही न रेख । मनसा बाचा कर्मना, साधू साहिब एक ।। २१ ।। सं० ० बा० सं०, पृ० २८ । ॐ हरि से तू जनि हेत कर, करि हरि जन सों हेत । माल मुलुक हरि देत हैं, हरिजन हरि ही देत ।। १८ ॥ वही पृ० २८ । + जो चाहे आकार तू साधू परतिष देव । .: निराकार निज रूप हैं, प्रेम भक्ति से सेव ॥ ३४६ ।। कबीर बानी, पृ० ३५।
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