भूमिका १-हिंदी-काव्य की 'निर्गुणधारा' व 'निर्गुण-संप्रदाय' हिंदी-काव्य के इतिहास का पूर्व-रूप हमें पहले-पहल उन काव्य- संग्रहों में दीख पड़ता है जिन्हें समय-समय पर, कुछ व्यक्तियों ने, अपनी रुचि के अनुसार प्रस्तुत किया था और जिनमें, कवियों से अधिक उनकी कृतियों पर ही ध्यान दिया गया था। इसके अनन्तर कविताओं के साथ-साथ उनके रचयिताओं के संक्षिप्त परिचय भी दिये जाने लगे और उक्त प्रकार से संगृहीत रचनाएँ, क्रमशः केवल उदाहरणों का रूप ग्रहण करने लगीं। ऐसे कवियों का नामोल्लेख, उस समय अधिकतर वर्णक्रमानुसार किया जाता था तथा उनके समय व स्थानादि का निर्देश कर दिया जाता था। उनकी कविताओं में उपलब्ध साम्य वा उनके वर्गीकरण की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था । इस दूसरे प्रकार के विवरणों का देना, उस समय से प्रारम्भ हुआ, जब कुछ प्रतिनिधि कवियों के अनुसार काल-विभाजन की भी प्रथा चल निकली और प्रत्येक वर्ग की चर्चा उसके कालक्रमानुसार की जाने लगी । ऐसा करते समय उन कवियों की विशेषताएँ बतलायी जाने लगीं, उनकी पारस्परिक तुलना की जाने लगी और कभी-कभी उनकी रचनाओं का आलोचनात्मक परिचय भी दे दिया जाने लगा। इस प्रकार उक्त कोरे काव्य-संग्रहों का रूप क्रमशः काव्य के इतिहास में परिणत होने लगा और कवियों के साथ-साथ गद्यलेखकों की भी चर्चा आ जाने के कारण इस प्रकार की रचनाएँ पूरे हिंदी साहित्य का इतिहास बनकर प्रसिद्ध हो चलीं।
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