चतुर्थ अध्याय १६७ सरल चित्त के लिए घास की साधारण पत्तियाँ, तुच्छ फूल जिनका प्रौढ़ मनुष्यों के समक्ष कोई भी मूल्य नहीं और जो उनके पैरों तले कुचल दिये जाते हैं, 'छोटी-छोटी तितलियाँ, धने-घने कुंज व अन्य ऐसी वस्तुएँ भी सौंदर्य से पूर्ण रहती हैं और उनमें बरबस अतुलनीय आनन्द का उद्रेक उत्पन्न करती हैं। किंतु उसके बाद यह बात नहीं रहती । ममुष्य के हृदय के तार अत्यंत ढीले पड़ जाते हैं और तब प्रत्येक स्पर्श के अनंतर वैसी ही झकार पैदा नहीं करते और न वह मधुर संगीत ही निकलता है। 'अपने गृह, परमात्मा के निकट से हम लोग ऐश्वर्यमय बादलों की भाँति क्रमश: बढ़ते चले आते हैं। हमारे बचपन में स्वर्ग हमारे चारों ओर घेरे रहता है और ज्यों-ज्यों बालक बढ़ता जाता है त्यों-त्यों कारागार की छाया उसे आच्छादित करती हुई दीख पड़ती है।' ( वड्सबर्थ)। प्रौढ़ मनुष्य इस कारागार को अपना नैसर्गिक निवास-गृह मानने लगता है, परन्तु वहाँ भी वह कभी-कभी उस ईश्वरीय स्मृति की झलक पा लेता है और उसे उस रहस्यमयी शक्ति के साथ अपने संबंध का एक धुंधला आभास मिल जाता है जो सर्वव्यापिनी शक्ति के पीछे अप्रत्यक्ष रूप से काम किया करती है और इस दशा में वह अपने को संसार के भीतर आत्माभिभूत सा अनुभव करने लगता है। ये झलकें कई कारणों से प्राप्त हो सकती हैं। कभी कभी तो सांसारिक श्रानंदों का अस्थायित्व और विपत्तियों की करता इधर प्रेरित करती हैं, किंतु इसकी प्रकृति के अनुकूल वातावरण के अभाव में यह फिर भी विस्मृति में विलीन हो जाती है। ईश्वरीय स्मृति को जाग्रत करने के लिए सांसारिक कष्टों व विपत्तियों की प्रतीक्षा करना बुद्धिमानी का काम नहीं है। संभव है कि इस प्रकार बिगड़े यंत्र द्वारा वह अपनी पूर्ण तीव्रता के साथ ग्रहण न की जा सके। उन लोगों के ही साथ का संपर्क सुरति को निश्चित रूप से
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