चतुर्थ अध्याय १६१ अकूता रह जाता है। उसे वर्ड सवर्थ के उस बुद्धिमान वर्ग में गिनना चाहिए जो ऊँचे उड़ते हुए भी कभी इधर-उधर नहीं भटकते और अपने घर एवं स्वर्ग इन दोनों के प्रति समान रूप से सच्चे होते हैं। एक प्रकार से सभी निर्गुणी संतों ने गार्हस्थ्य जीवन ही व्यतीत किया। नानक ने स्पष्ट शब्दों में कहा है, "सतगुरु की इस बात में बड़ी महत्ता है कि मैंने बाल-बच्चों में रहते हुए भी मोक्ष पा लिया।" जिसके विचार में संसार और उसके प्रलोभनों के विरुद्ध वैराग्य वा अनासक्ति से अभिप्राय बाहरी जीवन के कतिपय विधानों जैसे, गेरुए वस्त्र का पहनना, मठों में रहना, श्रादि से ही है वे इस बात पर हँस देंगे। परंतु वास्तव में, अनासक्ति का तात्पर्य बाहरी रहन-सहन नहीं, बल्कि अपने मन की एक प्रवृत्ति विशेष है। यह एक प्राम्यंतरिक दशा है जिसमें इस प्रकार के विहित वैराग्य. से भी अनासक्ति रहा करती है। विहित वैरागी को भी संसार से उतनी ही निश्चित आसक्ति हो सकती है जितनी एक गृहस्थ को होगो और एक गृहस्थ भी उतना ही अनासक्त रह सकता है। वास्तव में वही यथार्थ रूप से अनासक्त कहला सकता है जो आसक्तियों के बीच रहता हुश्रा भी अपनी अनासक्ति कायम रख सके।
- जग माहीं ऐसें रहौ, ज्यौं अम्बुज सर माहिं ।
रहै नीर के आसरे, पै जल छूवत नाहिं ॥ सं० बा० सं० भा० १, पृ० १४८ + सतिगुरु की असी बड़ाई, पुत्र कलत्र बिच गति पाई। -'ग्रन्थ साहब' पृ० ३५७ = गावरणही में रोवणा, रोवरण ही में राग । एक वैरागी ग्रह में, इक ग्रही में बैराग ॥ क. ग्रं, - - c