चतुर्थ अध्याय १८७ लेकर किया जाता था आज भी काशी में दिखलाया जाता है। मनुष्य को विष्ठा, खाने तथा उसके मूत्र का पान कर जाने की क्रिया एवं पात्र की जगह मनुष्य की खोपड़ी में भोजन करने की प्रथा जो अघोर- पंथियों में प्रचलित है, वह भी इन्द्रियों का दमन करने के लिए ही चली थी। हाँ, ऐसा कठोर शासन उन पर इसलिए किया जाता था कि वे अपने पूर्ण अधिकार में भा जाय और घृणित से घृणित वस्तु भी उनके द्वारा गहणीय न जान पड़े। इसके विपरीत ऐसे सम्प्रदायों की भी कमी नहीं, जो इससे नितांत प्रतिकूल मार्ग का अवलम्बन करते हैं और इन्द्रियपरक जीवनयापन के लिए पूर्ण स्वतंत्रता की व्यवस्था देते हैं क्योंकि उनके मंतव्यानुसार कभी न कभी वह भी समय आ सकता है जब हम कह उठे कि “अब पूर्ण सृप्ति हो गई, अधिक नहीं।" इस प्रकार के संप्रदायों का उद्देश्य उनके प्रति,अतिरेक-द्वारा ही अरुचि उत्पन्न करना होता है। इन संप्रदायों में कुछ तांत्रिक मत भी हैं जो अपने अस्तित्व के लिए आज कुछ अन्य बहाने भी निकालने लगे हैं। परन्तु सत्य का अनुभव अति मात्राओं में कभी नहीं हुआ करता और उक्त दोनों में से कोई एक भी अतिरेकता हमें सत्य तक पहुँचाने में सहायक नहीं हो सकती। दूसरी अति मात्रा की असस्यता तो स्वयं सिद्ध है और यह हास्यास्पद भी है। इससे तो "वृद्धा वेश्या तपस्विनी" अर्थात् बूढी वेश्या का तपस्विनी बन जानेवाली संस्कृत कहावत का स्मरण हो पाता है। ऐन्द्रिक जीवन में कोई भी प्रतिपूर्ति का अनुभव नहीं कर सकता जब तक इन्द्रियाँ निरर्थक नहीं हो जाती और इन्द्रियपरक जीवन के यापन करने का उस समय महत्व ही क्या रह गया जब अपनी इच्छा के अनुसार हम उसका उपभोग नहीं कर सकते और न इस प्रकार अपने श्राध्यात्मिक जीवन में उसका कोई उपयोग ही सिद्ध होता है। कोई भी नहीं चाहेगा कि मैं अपनी आध्यात्मिक दशा को.अशक्त वा जीर्ण-शीर्ण
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