चतुथ अध्याय १८५ । में "भन्दिर वा मसजिद में जाने की कोई भी आवश्यकता नहीं, क्योंकि वास्तविक मन्दिर और मसजिद अपने हृदय के ही भीतर हैं जहाँ भगवान् की सेवा या सिजदा किया जा सकता है" x इसी प्रकार मन भौतिक प्रवृत्तियों से रहित होकर श्राध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने योग्य बनेगा। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार प्रात्मा ने देश-काल एवं कार्य-कारण के नियमों की मर्यादा अपने ऊपर डालकर अपने को माया में फंसा रक्खा है उसी विपरीत ढंग से उसे क्रमशः मुक्त कर अपने मूलरूप में लौटा लाना होगा। दादू ने भी कहा है कि "सुरति को परिवर्तित कर उसे आत्मा के साथ मिला दो।"+ अपने से ऊँची अवस्था में भी हमें सुरति की सहायता अपेक्षित है। वहाँ भी हमें चाहिए कि इसे पकड़े रहें, क्योंकि वहाँ भी मर्यादाएँ, जो सापेक्षरूप से कम ही क्यों न हों, अवश्य वर्तमान हैं और उन्हें भी उसी प्रकार पार करना पड़ेगा जिस प्रकार यहाँ नोचे की ओर हमें स्थूल परिस्थितियों को पार करना पड़ता है। प्रत्येक भूमि की अवस्था में हमें दुहरी स्थिति का अनुभव होता है और यदि हम सुरति को भूल जायेंगे जो वास्तव में ईश्वरीय स्थिति का बोधक है, तो हमारा ऊपर का उठना अवश्य बंद हो जायगा । और सम्भव है कि हम नीची भूमियों तक गिर मंडप महजित मुरति सुरति करि धोखहिं ध्यान धरै ।। दान विधान पुरान सुनें नित तौ नहिं काज सरै । धरनी भव जल तत्तु नावरी चढ़ि चढ़ि भक्त तरै ।। बानी, पृ० २३ ।
- यहु मसीत यह देहरा, सतगुरु दिया दिखाइ ।
भीतर सेवा बंदगी, बाहर काहे जाइ ।। ५४ ॥ बाज़ी भा० १, पृ० १७४ । + सुरति अपूठी फेरि करि, आतम माहे प्राणि ।। सं० बा० सं., भा० १, पृ० ८१ । .