चतुर्थ अध्याय १८१ हैं। इसलिए, कबीर कहते हैं कि अपने प्रियतम की उपलब्धि श्रद्धान्वित मन के द्वारा ही संभव है।" मनुष्य यदि प्रयत्नशील रहे तो वह अपने मन की सहायता से आध्यात्मिक भूमियों तक ऊपर उठ सकता है, किंतु यदि सावधान न रहा तो इच्छा न रहते हुए भी उसका अधःपतन शीघ्र हो सकता है । भौतिक तत्वों का संसर्ग होने के कारण मन में जड़ता पा जाती है और वह तब तक नीचे की ओर गिरता चला जाता है जब तक इसकी गति को रोककर उसकी दिशा बदलने की चेष्टा न की जाय । इसलिए उस 'खाक'-द्वारा निर्मित मन के लिए आवश्यक है कि वह "ज्योति निर्मित मन को जाग्रत किये जाने के पहले ही मर कर नष्ट हो जाय । वृक्ष बहुत ऊँचा है, उसके फल आकाश में लगे हुए हैं और उन्हें चुने हुए पक्षी ही खा सकते हैं; उनका रसास्वादन केवल वही कर सकता है जो जीता ही मृतक हो जाय ।"+ इसी प्रकार मलूकदास भी कहते हैं- दिखावटी पीर जो पीरों के भेष में रहा करते हैं, किंतु सच्चा दरवेश चही है जो भगवान् के कोपस्वरूप इस मन को मार डाले।मन को भगवान् का कोप इसलिए कहा है कि यह मन ही हमें निकृष्ट भौतिकता -बहुत से a मन के हारे हार है, मनके जीते जीत । परमातम को पाइये, मन ही के परतीत ।। क० बा०, पृ० ६६, ६८५। + ऊँचा तरुवर गगन फल, बिरला पंछी खाय । इस फल को तो सो भखै, जीवत ही मरि जाय ।। -सं० बा० सं. १, पृ० ४ । ४ बहुतक पीर कहावते, बहुत करत हैं भेस । यह मन कहर सुदास का, मारै सो दुरवेस ।। वही पृ० ६६ ।
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