१७८ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय निख्याधिक अवस्था इन दोनों का ही समावेश किया जा सकता है, यद्यपि इस बात का पता नहीं कि उनका अपना अभिप्राय ऐसा था या नहीं। इन विभिन्न भूमियों तथा व्यापारों द्वारा स्वतन्त्ररूप से, श्राध्यात्मिक मार्ग की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का भी बोध हो सकता है और बहुधा उन्हें ऐसा ही मान भी लिया जाता है। परन्तु इन अवस्थात्रों की संख्या, साधक-विशेष के अनुसार बदलती रहती है और उसका निश्चय, केवल कर्मों के वर्गीकरण द्वारा नहीं वरन् उन्हें परिष्कृत करने की प्रगति- द्वारा किया जा सकता है। क्योंकि व्यापारों के केवल वर्गीकरण-द्वारा ही इसका निर्णय नहीं किया जा सकता, बल्कि उन भागों में के विस्तारा- नुसार ही होता है जिन्हें साधक उन व्यापारों को विकारहीन बनाने के भूतल में उठा सकता है। इसी कारण हम देखते हैं कि निर्गुण संप्रदाय के भिन्न-भिन्न संतों ने उक्त भूमियों की भिन्न-भिन्न संख्याएँ निर्धारित की हैं। शिवदयाल साहब ने तथा कुछ कबीर-पंथियों ने भी पंद्रह भूमियाँ बतलाई हैं, उनके शिष्यों ने अठारह, तुलसी साहब ने बाईस शून्यों की कल्पना की है और कतिपय अन्य कबीरपंथियों ने छब्बीस जोक ( जिसमें सात पाताल, सात आकाश, सात शून्य और पाँच निरू- पाधिक भूमियाँ आती हैं ) ठहराये हैं। किन्तु, स्थिति जैसी भी हो, इतना स्पष्ट है कि, यदि किसी को वह उपाधिरहित स्थिति पुनः प्राप्त करनी है तो, उसे अपने को इन स्थूल भूमियों से क्रमशः अलग करते हुए, उन सीमावर्ती आवरणों को भी दूर कर देना होगा . जिनके भीतर वह पड़ा हुआ है। इसी कारण निर्गुणियों ने अपने ईश्वरोन्मुख मार्ग की, अनलपक्षनामी काल्पनिक पक्षी के बच्चे की, अंडे से बाहर होने की क्रिया के साथ तुलना की है जो पृथ्वी से स्पर्श होने के पहले ही समाप्त हो जाती है और वह फिर श्राकाश की ओर वहाँ तक उड़ जाता है जहाँ उसकी माँ ने वह अंडा .
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