चतुर्थ अध्याय निर्गुण-पंथ श्राध्यात्मिक साधना के ईश्वरोन्मुख मार्ग में प्रगति का पुनरावर्तन के रूप में होना अनिवार्य है। जैसा कि पूर्व अध्याय में कहा जा चुका है, मनुष्य विविध कोशों के स्तरों-द्वारा परिच्छिन्न कर १. प्रत्यावर्तन दिया गया है और प्रत्येक आवरण का पड़ता जाना की मात्रा क्रमशः ऊपर से नीचे की ओर उतरना सूचित करता है इस अवतरण के लिए पारिभाषिक शब्द Hypostasis का प्रयोग किया जाता है। ऐसी कई भूमियाँ बन गई हैं जिनमें स्थूलता क्रमशः बढ़ती गई है और अंत में इसका स्तर इतना अधिक स्थूल हो गया है कि उसके द्वारा ढके हुए वा परिच्छिन्न श्रात्मा का आभास तक नहीं हो पाता और उसका ज्ञान तक लुप्त हो जाता है। परन्तु तो भी मनुष्य के भीतर इस आत्मा का अस्तित्व अवश्य है और वह अपनी पूर्ण ज्योति से प्रकाशित है; यद्यपि उस स्थूल श्रावरण के कारण उसका प्रकाश हमें लक्षित नहीं होता। इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य उच्चतम स्तर में रहता हुश्रा भी सभी नीचे के स्तरों में भी तब तक वर्तमान रहता है, जब तक उसके ऊपर उठ नहीं जाता। फिर भी यह मान लेना आवश्यक नहीं कि भिन्न-भिन्न भूमियों में रहने के लिए प्रात्मा को भौतिक शरीरों की भाँति भिन्न-भिन्न कलेवर धारण करना चाहिए। साधक के सामने यह प्रश्न नहीं रहता कि हमें भौतिक शरीर को त्यागकर किसी छायात्मक वा तेजोमय शरीर में प्रवेश करना है। यह वर्तमान शरीर ही सब प्रकार की अनुभूतियों के अनुरूप आवश्यक साधनों से सम्पन्न हो जाता है। ऊँची से ऊँची भूमि भी जो, वास्तव में सभी भूमियों से परे की स्थिति है, इसकी अनुभूति से बाहर नहीं (निर्गुणी दृष्टिकोण के अनुसार भौतिक शरीर की सहायता के बिना ऊँची भूमियों तक पहुँचना असंभव है। यदि अंतिम मोत की प्राप्ति के पहले ही किसी का देहांत हो जाय तो, उसे छोड़े हुए
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