१७० हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय पलटू ने सबसे बड़ा भक्त को, उसके बाद नाम को और उसके बाद दस अवतारों को मानकर अवतार का+ वास्तविक महत्व स्वीकार किया है। क्योंकि साधना दृष्टि से कहा गया है, (और इस कथन से अवतार का स्थान ब्रह्म के अनंतर आता है ) निर्गुण सगुण नाम संत । कुछ संतों में तो अवतार-विरोध यहाँ तक बढ़ा कि राम शब्द से उनको चिढ़ हो गई । और यहाँ तक देखा जाता है कि राम कबीर आदि पुराने संतों की वचनावली में से राम शब्द हटाकर 'नाम' शब्द उसके स्थान पर रखा गया। स्वयं कबीर-पंथ में यह विश्वास चला आ रहा है कि कबीर ने सत्य नाम का प्रचार किया। राम नाम का नहीं । परन्तु असल बात यह है कि जिस सत्य नाम का कबीर ने प्रचार किया वह राम नाम ही है । गुलाल ने कबीर के मत को 'राम-मत' कहा है । कबीर के कुछ अनुयायी, जो विशेषतया अयोध्या में रहते हैं, अपने को 'राम-कबीर' कहते हैं। फिर भी निर्गुणी संतों का अवतार-विरोध राम शब्द के बहिष्कार का कारण बना है अक्तार-विरोध का एक प्रधान कारण यह भी हो सकता है कि उसके द्वारा नर-पूजा का विधान हो जाने के कारण धर्म में पाखंड को घुसने का मार्ग मिल जाता है। परंतु इसका कारण अवतार-वाद के मूल अभिप्राय को अच्छी तरह से न समझ सकना है। अवतार-पद कोई ऐसा अधिकार नहीं जो किसी व्यक्ति को इसी जीवन में प्राप्त हो जाय। वह तो एक अत्यंत पूर्णता तथा महत्व-युक्त जीवन को बिताने के पीछे अयाचित रूप से मिलनेवाला पुरस्कार मात्र है, जो उन्हीं को मिल सकता है जिन्होंने सदैव सत् का पक्ष लेकर असत् के साथ घोर + सब में बड़ है संत, तब नाम है । तिसरे दस औतार तिन्हें परनाम है-बानी, भाग ३ पृ० ७५, ७ 8 कबिरा राम-मत सो लही । हिंदू तुरक सबकी कही ।। -म० बा०, पृ० ३१४ ।
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