तोसरा अध्याय १६५ . संतों का कुछ मतभेद भी जान पड़ता है। यदि १०. अवतार वाद आज-कल के रामानन्दी सम्प्रदाय के सिद्धांतों को रामानन्द जी के साथ जोड़ सकते हैं तो निस्संदेह अपने अद्वैती सद् वाद के साथ-साथ ये अवतार वाद के माननेवाले भी थे। उनके लिए दाशरथि राम साक्षात् परब्रह्म के अवतार हैं । परन्तु पैगम्बर हो या अवतार, दोनों में से कोई भी कबीर आदि संतों को ग्राह्य नहीं । कबीर ने रामानन्द से 'राम' मन्त्र लिया तो सही, किंतु उस 'राम' शब्द से उन्होंने दूसरा अर्थ लिया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है, "दुनिया दशरथ के पुत्र को 'राम' कहती है, परन्तु राम का मर्म कुछ और ही है ।" 'राम' शब्द से निर्गुणियों का अभिप्राय विष्णु के अवतार-विशेष से नहीं है जिसे हिन्दू मानते हैं और जिसका तुलसीदास जी ने अपनी अमर वाणी से यशोगान किया है प्रत्युत परब्रह्म राम से । उनके मत में परब्रह्म किसी सनुप्य-विशेष के रूप में पृथ्वी पर नहीं उतरता। राम शब्द के अंतर्गत वे भी बहुत सूक्ष्म सगुण भावना का अस्तित्व मानते हैं, किंतु वह निर्गुण ब्रह्म तक पहुँचने के लिए सीढ़ी मात्र का काम देता है, जिसका स्पष्टीकरण आगे किया जायगा । अवतारवाद के वे बिल्कुल विरोधी थे । सब पूजा-अर्चा जिसका सम्बंध दृश्य पदार्थों से है, उनकी विचारधारा के प्रतिकूल पड़ती है। यदि रक्त-मांस के भौतिक शरीर का विचार किया जाय तो उनके मतानुसार कोई भी परमात्मा नहीं-दाशरथि राम भी नहीं, किंतु शरीर को छोड़- कर यदि आत्मा की ओर दृष्टि डाली जाय तो सभी परब्रह्म हैं कोई भी इसका अपवाद नहीं, राम का शत्रु राक्षस-राज रावण भी नहीं । अतएव उनकी दृष्टि में किसी भी मनुष्य को परमात्मा मानना ठीक नहीं । राम ॐ दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना । राम नाम का मरम है पाना ।। -बीजक, सबद १०६ ।
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