१६२ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय न डालूंगा। यही कारण है कि सत्ययुग में सत्य सुकृत नामधारो कबीर ने केवल राजा धोंधल और सपरिवार ग्वालिनि खेमसिरी को तथा त्रेता में मुनीन्द्र नाम धर कर केवल भाट विचित्र, हनुमान लक्ष्मण और मन्दोदरी को तथा करुणामय नाम धारण कर द्वापर में गढ़ गिरनार की रानी इंदुमती और उसकी प्रार्थना पर उसके पति को काल (निरंजन) के जाल में पड़ने से बचाया । यही नहीं कलियुग में भी उसने धोखे से कबीर साहब से नाम-मंत्र का रहस्य ले लिया और नाना ग्रंथों का निर्माण कर, नाम देने के बहाने से दुनिया को अपने जाल में बाँधने लगा। कुछ अन्य संत भी इसी प्रकार निरंजन को परम पुरुष से अलग, उससे नीचा पद वाला धोखेबाज पुरुष समझते हैं । शिवनारायणजी का कथन है कि शब्द से निरंकार (निरंजन ) का जन्म हुआ जिसने ब्रह्मांड और जीवों की रचना की और उन्हें मोह को फाँस से बाँधा ॐ ॐ आपुहि अाप शब्द चहुँ ओरा, शब्द बीज अनियारा हो । तेहिते निरंकार भौ तेही, तब भौ धरति अकाशा हो । तब भौ जीव सकल ब्रह्मण्डा, करत अवर की प्राशा हो । करम काम ई भरम लगाई, अवर अवर बिसवासा हो । देखत निरंकाल भौ ब्याधा, लखत मोह फाँसा हो। जेहि पावत ते सबै बझावत, का भूली देखत तमाशा हो । सिवनारायण आप देखु चलु, जहाँ आपन घर बासा हो । -संत-विलास, हस्तलेख । तुलसी तीन लोक का नाइक, सबका लूटै माल । सतगुर चरन शरण जो आवै, सो-जिव देत निकाल । ...बेद नेत कर ताहि ब्रह्म कर कहत बखाना। अरे हाँ रे तुलसी, संत मता कछ और और कछ संतन जाना। ...गावत बेद निखेद जो नेति, कहत न जाने, निरंजन नाऊँ। -शब्दावली, २य, पृ० ४८-४६ 1 4
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