के विषय में लिखी गई नाभा जी की कुछ पंक्तियों से भी प्रकट है । उस पद्य के अनुसार वे सभी लोग 'दशधा' भक्ति के 'पागर' थे ।* भक्ति। साधारण प्रकार से नवधा मानी जाती है, किंतु ऐकांकित धर्म का जो रूप रामानन्द को उपलब्ध हुआ था उसके अनुसार प्रेमाभक्ति, भक्ति के अन्य सभी अंगों से श्रेष्ठ मानी जाती थी और वह इसी कारण दशधा कहलाती थी । ऐकांकित धर्म के प्रचारक नारद के नाम से प्रचलित 'भक्तिसूत्र' में भक्ति की परिभाषा परमप्रेम रूपिणी ( सातु 'अस्मिन् परम प्रेमरूपा )[ दी गई है। रामानन्द ने अपने शिष्यों को प्रेमाभक्ति ही दी थी और इसी में कबीर आदि निर्गुणी मग्न रहा करते थे। कबीर स्वयं उपदेश देते हैं कि "नारद द्वारा प्रवर्तित भक्ति में मग्न होकर भवसागर पार करो।"+ -अनंतानन्द कबीर सुखा सुरसुरा पद्भावति नरहरि। पोपा भवानन्द रदास धना सेन सुरसरि की घरहरि ॥ औरो शिष्य प्रशिष्य एकते एक उजागर । विश्व मंगल आधार सर्वानन्द दसधा के आगर ॥ बहुत काल वपु धारिकै प्रणत जनन को पार दियो। श्री रामानन्द रघुनाथ ज्यों दुतिय सेत जग तरन कियो॥ भक्तप्ताल (लखनऊ) श्री सीतारामशरण भगवानप्रसाद-द्वारा संपादित, पृ० २८८ तथा पृ० २६० । उसी का प्राचीन बनारस संस्करण पृ० १११ । श्री वेंकटेश्वर प्रेस ( बम्बई सन् १६०५ ) वाले संस्करण के पृ० ६६ में पांचवीं पंक्ति का उत्तराद्ध 'भक्ति दशधा के प्रागर' है। 1-सात्वस्मिन् परम प्रेमरूपा । -भगति नारदी मगन सरीरा इहि विधि भवतिरि कहै कबीरा ॥ क० प्र०, ( १९८-३२४)।
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