तीसरा अध्याय सिद्धांतों का क्रमविकास दिखलाने का उद्योग किया है । उससे पता चलता है कि उपनिषदों के द्रष्टाओं ने भी अपना आध्यात्मिक अन्वेषण उसी प्रणाली पर चलाया जिस पर शताब्दियों पीछे निर्गणी संतों ने । बाहरी खोजसे असंतुष्ट होकर उपनिषदों के द्रष्टात्रों ने ब्रह्म को अपने अंदर हूँढ़ने का निश्चय किया। 'वृहदारण्यक' का प्रस्ताव है श्रात्मा का दर्शन करना चाहिए । जब वे इस आभ्यंतर खोज में लगे तो 'बृहदारण्यक' के ही शब्दों में उन्हें पता लगा कि यह आत्मा ही ब्रह्म है। इससे उनको "मैं ही ब्रह्म हूँ"x की अनुभूति हुई,) क्योंकि अहं का अधिष्ठान आत्मा ही है, वही उसमें सार वस्तु है। इससे स्वाभाविक परिणाम निकला कि 'अहं' मैं ही नहीं प्रत्युत प्रत्येक अहं, प्रत्येक प्रात्माधारी जीव ब्रह्म है। पूर्ण ब्रह्म हमारे ही भीतर है-“वह तू हं = कहकर प्रत्येक व्यक्ति को छांदोग्य उपनिषद् इसी तथ्य की याद दिलाता है । इस प्रकार सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ता हुश्रा द्रष्टा सब बंधनों से मुक्त होकर अनुभूति के उस सर्वोच्च शिखर पर जा पहुंचता है, जहाँ से वह 'छांदोग्य' का साथ देता हुआ विस्मित जगत् के सम्मुख घोषणा करता है-“यह सब जो कुछ है, वह ब्रह्म है।" गेडन ने कहीं ठीक ही कहा है कि भारत में जितने धार्मिक सुधार श्रांदोलन हुए हैं; उनका प्रारंभ हमेशा उपनिषदों के गहरे अध्ययन के साथ हुआ है। वेदों में जिस आध्यात्मिक ज्ञान का अन्वेषण प्रारम्भ हुश्रा उसकी अंतिम सीमा, परिपूर्णता, उपनिषदों में प्राप्त हुई, इसीलिए .
- आत्मा वा अरे द्रष्टव्य-४, ४, १२ ।
+ अयमात्मा ब्रह्म-२, ५, १६ । ४ अहं ब्रह्मास्मि-बृहद्, १, ४, १० । तत्वमसि-६७८, ७ ।
- सर्वं खल्विदं ब्रह्म-३, १४, १ ।