। १४० हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय मानते हैं। उनके लिए विवर्त, विवर्त न होकर विकास है। उनके अनुसार सृष्टिरचना-क्रम केवल कहने-सुनने भर का नहीं, वास्तविक है। जड़ जगत् भ्रम मात्र नहीं, त्रिगुण पंचतत्व, पच्चीस प्रकृति आदि की व्यावहा- रिक सत्ता ही नहीं, वास्तविक अस्तित्व है, जैसा सांख्यशास्त्र में माना गया है। वे यथानियम उदय और नष्ट होते हैं हाँ, इन नियमों का उन्होंने स्पष्ट वर्णन नहीं किया है। एक स्थान पर शिवदयाल जी ने तत्वों की उत्पत्ति निम्नलिखित क्रम से मानी है-आकाश, पवन, अग्नि, जल और पृथ्वी । प्रत्येक नवीन तत्व का उदय उन्होंने पुराने तत्व से माना है। यह ठीक तैत्तिरीयोपनिषद् के अनुकूल है जिसमें लिखा है, तस्माद्वा एतस्माद्वात्मन आकाश संभूत: आकाशाद्वायुः वायोरग्निः अग्रेरापः अद्भ्यः पृथिवी 18 प्रलय का वर्णन करते हुए शिवदयाल जी ने इससे उलटे क्रम से स्थूल का सूक्ष्म में लीन होता जाना कहा है- पृथ्वी घोली जल ने प्राय । जल को सोखा अगिनी धाय ।। अगिनी मिली पवन के रूप । पवन हुई आकाश स्वरूप । आकाश समाना माया माहिं । तम रूपा दीखे कुछ भी नाहिं ॥+ इन लोगों के अनुसार भी विभु की लीलामयी इच्छा ही सृष्टि का मूल कारण है और माया का सूक्ष्मतम रूप है। शिवदयाल जी के शिष्य रायसाहिब शालिग्राम ने कहा है-मज उठी रचना भई भारी ।x नानक कहते हैं कि परमात्मा ने जगत् की रचना स्वयं की और स्वयं सृष्टि-पदार्थों का नामकरण किया। अपनी कुदरत (माया) से इस त सृष्टि को बनाकर वे आनंद से उसे देखने लगे-
- तैत्तिरीय, २, १।
+ सारवचन, २, पृ० ३४ । x प्रेमबानी, पृ० ५४, २।