1 १३२ 'हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि पहले संतों ने निरंजन को भी जिसे कुछ पिछले संतों ने परब्रह्म का एक विवर्त माना है, पूर्ण ब्रह्म के पर्याय के रूप में ग्रहण किया था। ब्रह्म का पहला विवर्त प्रणव, ॐ अथवा शब्द ब्रह्म है जिसमें पुरुष (और प्रकृति, व्यक्त और अव्यक्त, ईश्वर और माया दोनों समाहित हैं। प्रणव का अव्यक्त स्वरूप विंदु है और व्यक्त स्वरूप नाद । अव्यक्त रूप में वह गणित के विंदु के समान है जिसक्ता अस्तित्व तो है पर माप नहीं। इस बात को तो सब जानते हैं कि रेखागणित के सब श्राकार विदुओं की वृद्धि से ही बनते हैं। नाद अथवा इच्छा या मौज का प्रकंपन ही एक विंदु को अनेक में परिणत कर विश्व-स्रजन का कारण होता है। नाद के प्रकंपन के सिमिट कर बंद हो जाने पर यह समस्त सृष्टि भी सिमट कर बिंदु में समाविष्ट हो जाती है। भीखा को उपदेश देते हुए गुलाल जी ने कहा था- इच्छा पलक मुदि जब लीन्हा। तब सब प्रलय आपुही कीन्हा । फिर विस्तार कर जब चाहा। माया दृष्टि खोलि जग लाहा ।।8 इसी बात को दाद ने दूसरी तरह से यों कहा है- एक सबद सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोइ + यह हमारे यहाँ के प्राचीन सिद्धांतों के अनुकूल जान पड़ता है । भर्तृहरि के वाक्य पदीय के अनुसार भी श्राद्यंतहीन शब्द तत्व अक्षर ब्रह्म ही अर्थ भाव से विवर्त ग्रहण करता है । इसी से जगत् की प्रक्रिया होती है। मनु के अनुसार भी भूतों के नाम, रूप और कर्मों का
- महात्माओं की बानी, पृ० २०३, 'गुलाल गुल' ।
+ बानी, प्रथम, पृ० १६६, १.। x अनादि निधनं ब्रह्म शब्दतत्वं यदक्षरं । विवतर्थ भावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥ वाक्य पदीय। .