। तीसरा अध्याय १३१ अनुरूप है जिसका श्रीकृष्ण ने पंद्रहवें अध्याय के प्रारम्भ में वर्णन किया है और विरक्ति के कुठार से जिसे काट डालना आवश्यक बतलाया है गीता के अश्वत्थ के समान कबीर के इस तरुवर की जड़ें ऊपर और शाखाएँ नीचे नहीं बतायी गयी हैं, परन्तु इससे इन दोनों में कोई विशेष अंतर नहीं आता। कठोपनिषत् का अश्वत्थ जो पूर्ण ब्रह्म का स्वरूप होने के कारण सत्य माना गया है अद्वतियों के मतानुकूल न होकर भेदा- भेदियों तथा विशिष्टाद्वतियों के मतानुकूल है। तुलसीसाहब ने भी इस जगत् को एक उलटा वृक्ष बताया है, यद्यपि अपने सिद्धांत के विपरीत वे उसे असत्य नहीं बना सकते थे। उनका सिद्धांत कठोपनिषत् के अनुकूल जान पड़ता है । इस वृक्ष की जड़ ऊपर और डाली नीचे बताने से अभि- प्राय यह है कि परब्रह्म ही उसका मूल है।x सांख्यशास्त्र को कबीर श्रादि अद्वैती, अद्वैत वेदांत की ऐनकों से देखते थे। सांख्य पुरुष और प्रकृति दोनों को भिन्न तथा अनादि अनंत और नित्य मानता है। परन्तु यह बात इन संतों के सिद्धांत के अनुकूल न थी। सांख्य का सिद्धांत भी सर्वथा गलत न था। जहाँ तक उसकी गति थी वहाँ तक वह ठीक है, परन्तु पूर्ण ज्ञान तक उसकी पहुँच नहीं हैं। अतएव शंकराचार्य के अनुयायियों की भाँति कबीर श्रादि निर्गु, णियों ने भी सांख्य-सिद्धांत का उपयोग किया परन्तु उसपर अद्वैत की छाप लगाकर प्रकृति और पुरुष को भी उन्होंने व्यावहारिक सत्य के रूप में ग्रहण किया और उनके संयुक्त रूप को ब्रह्म का व्यावहारिक व्यक्त- स्वरूप साना, जिसके परे अन्यक्त पूर्ण ब्रह्म का स्थान था। यहाँ पर इस ४ दरक्खत एक है उलटा । कधी होवे नहीं सुलटा ॥ अगर वह पेड़ अड़बड़का। तले डाली अधर जड़ का ।। - "रत्नसागर", पृ० १७४ ।
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