( ज पद्धति और तंत्रवाद में दीख पड़नेवाले उपासनात्मक भावों की इंद्रिय- स्पशिणी तीव्रता जिसम विषयी जीवन के उस घृणास्पद अंश का अभाव रहा करता है जो तांत्रिक साधना का अभिशाप है, ये सभी यहाँ आकर एक सुसंगत व्यापक रूप में संश्लिष्ट हो गये हैं। इस रचना के पांचवें अध्याय में दिखलाया गया है कि दो भिन्न- भिन्न आध्यात्मिक विचारधाराओं का यह सम्मिलन, एकांतिक धर्म एवं बौद्धधर्म से प्रारम्भ होकर, उनके अठारह शताब्दियों तक पृथक् पृथक् विकसित होते रहने पर भी, अंत में क्रमशः वैष्णवधर्म एवं नाथमत में परिणत हो जाने. पर, किस प्रकार संभव हो गया। 17 निर्गुणियों के शब्द संग्रह में कुछ ऐसे परिभाषिक शब्द आते हैं 'जो उक्त दोनों धाराओं के पारस्परिक मिलन के पूर्वकालीन पृथक् विकास का स्मरण दिलाते हैं। 'हरि', 'नारायण', 'नारदी भक्ति' वे शब्द हैं जो एकांतिक धर्म की ओर से प्रवाहित होनेवाली धारा को सूचित करते हैं और, उसी प्रकार, 'शून्य', 'विज्ञान,' व 'निर्वाण' जैसे शब्द वे हैं जो बौद्ध धर्म की धारा की ओर संकेत करते हैं । पहली धारा की ओर से आनेवाले शब्दों के अर्थ में उतना घोर परिवर्तन नहीं हुआ है जितना कि दूसरी धारावाले शब्दों के संबंध में हो गया है । 'शून्य' एवं 'विज्ञान' शब्द, बौद्ध दर्शन के निश्चित संप्रदायों से सम्बन्ध रखते हैं। नागार्जुन का 'शून्य' उस 'शून्यमण्डल' में सुरक्षित है जो योग-पद्धति से होकर आता हुआ निर्गुण संप्रदायों के अंतर्गत 'ब्रह्मरंधू' का द्योतक हो गया है । इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि शून्य वहाँ पर ब्रह्म का वाचक है। किन्तु निर्गुणी लोग शून्य का वर्णन कभी-कभी परम
- -सुनि मंडल में सोधिले, परम जोति परकास ।
'कबीर ग्रंथावली', पृ० १२७, पद १२१ । ७