तीसरा अध्याय ११७ विचार नहीं किया है। उसका निर्वचन करने के लिए सब दृष्टि-कोणों से विचार करना पड़ता है, परंतु अंत में सबका समन्वय किये बिना पूर्णा- वस्था का ज्ञान नहीं हो सकता। कबीर जैसे पूर्ण अद्वैतवादियों ने यही किया भी है। इसी से कबीर में एक साथ ही निंबार्क के भेदाभेद और रामानुज के विशिष्टाद्वैत का दर्शन हो जाता है। उनकी उक्तियों में से कोई भी वाद निकाला जा सकता है। परंतु स्वत: कबीर ने उनमें से किसी एक को नहीं अपनाया है। उन सबसे उन्होंने ऊपर उठने के लिए सोपान मात्र का काम लिया है। कबीर के सूक्ष्म दार्शनिक विचारों को पूर्ण रूप से समझने के लिए हमें उनकी एक ही दो उक्तियों पर नहीं बल्कि उनकी सब रचनाओं पर एक साथ विचार करना होगा। ऐसा करने से इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि वे पूर्ण अव ती थे। वस्तुतः पूर्ण श्र? त में कबीर का इतना अटल विश्वास है कि वे उस परमतत्व को कोई नाम देना भी पसंद नहीं करते, क्योंकि ऐसा करने से नाम और नामी में तभाव हो जाने को आशंका हो जाती है- "उनको नाम. कहन को नाहीं, दूजा धोखा होई ।"x जो तके से द्वैत-सिद्धि करना चाहते हैं उनकी वे मोटी अक्ल मानते थे "कहे कबीर तरक दुइ साधे, तिनकी मति है मोटी।"8 मुमुक्षु की दृष्टि से मोक्ष जीवात्मा का परमात्मा में घुल-मिलकर एकाकार हो जाना है। इस मिलन में भेद-ज्ञान जरा भी नहीं रहता। कबीर आदि संतों ने वेदांत का अनुसरण करते हुए घड़े के (घटाकाश दृष्टांत के अनुरूप) फूट जाने पर उसके भीतर के पानी के बाहर के पानी से मिल जाने के दृष्टांतों द्वारा समझाने का प्रयत्न किया है। इन दृष्टांतों . x क० श०, भा० १, पृ० ६८ । ॐ क० ग्र०, पृ० १०५, ५४ । .
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