तीसरा अध्याय ११३ मानते हैं। संभवत: यह प्रवृत्ति इन्हीं के अनुकरण का फल है, परन्तु बौद्धों और सूकियों में इन पदों की भावना विभिन्न पुरुषों और उनके विभिन्न लोकों के रूप में नहीं की गई है; किन्तु केवल सोपानों के रूप में । अभ्यास पक्ष में संतों ने भी ऐसा ही किया है किंतु इससे उनको लोक और पुरुष भी मानना संगत नहीं ठहराया जा सकता। एक स्थान पर शिवदयालजी ने राधास्वामी दयाल से कहलाया है कि अगम, अलख और सत्य पुरुष में मेरा ही पूर्ण रूप है । * यदि यह बात है तो यह कैसे माना जा सकता है कि इन रूपों को ग्रहण करने के लिए राधास्वामी को नीचे उतरना पड़ा है। जहाँ परमात्मा को एक पग भी नीचे उतरना पड़ा, समझना चाहिए कि पूर्णता में कमी आ गई। साधक के पूर्ण आध्यात्मिकता में प्रवेश पाने में उत्तरोत्तर बढ़ती हुई मात्राएँ हो सकती हैं; परन्तु निर्लेप परमतत्त्व में, जब तक वह निर्लेप परमतत्त्व है, न्यूाधिक मात्राओं का विचार घट नहीं सकता। पूर्ण ब्रह्म की जब तक पूर्ण प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक साधक अपूर्ण ही कहलायेगा, चाहे उसकी अपूर्णता सूक्ष्म हो अथवा स्थूल । यदि पूर्ण ब्रह्म-भावना पर बाह्यार्थ का आरोप किया जायगा तो वह अवश्य ही सारहीन होकर ऐसी अदार्शनिक प्रवृत्ति में बदल जायगी; यही यहाँ हुआ भी है। कहना न होगा कि निरंजन, अलख, अगम, अनामी, सत्य आदि शब्दों को-जिन्हें पिछले संतों ने विभिन्न 'पुरुषों' का नाम मान लिया ॐ पिरथम अगम रूप में धारा । दूसर अलख पुरुष हुआ न्यारा ॥ तीसर सत्त पुरुष मैं भया । सत्तलोक में ही रचि लिया ।। इन तीनों में मेरा रूप । ह्याँ से उतरी कला अनूप ।। ह्याँ तक निज कर मुझको जानौ । पूरन रूप मुझे पहचानो ।। --सारवचन, भाग १, पृ० ७५ ।
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