१०८ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय दादू देखौं दयाल कौं, बाहरि भीतरि सोइ । सब दिसि देखौं पीव कौं, दूसर नाहीं होइ ।।+ भीखा भी कहते हैं- भीखा केवल एक है, किरतिम भया अनन्त । एकै प्रातम सकल घट, यह गति जानहिं संत ॥x हम यह देख चुके हैं कि परमात्मा भाव और प्रभाव दोनों प्रणालियों से अवर्णनीय है; क्योंकि वह भाव और अभाव दोनों के परे है। परमात्मा की सगुण भावना भावात्मक '३. परात्पर प्रणाली है, और निर्गुण भावना अभावात्मक । परन्तु परमात्मा का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए सगुण और निर्गुण दोनों के परे पहुँचना चाहिए । कबीर का अपने को निर्गुणी कहना नकारात्मक प्रणाली के अनुसरण मात्र की ओर संकेत करता है, जिसके साथ जिज्ञासु का ज्ञान-मार्ग में प्रवेश होता है । सूचम गुण तीन माने जाते हैं । इसलिए कबीर ने परमात्मा के सत्य स्वरूप को तीन गुणों से परे होने के कारण चाया पद भी कहा राजस तामस सातिग तीन्यू, ये सब तेरी माया चौथे पद को जो जन चीन्हें तिनहिं परम पद पाया || + नांचे लिखो पंक्ति में भी इसी बात को ओर संकेत है- कहै कबीर हमारै गोव्यंद चौथे पद में जन का ज्यद । कबीर. तीन सनेही बहु मिले, चौथे मिले न कोय । सबै . पियारे राम के, बैठे परवश होय ॥ + बानी, भाग १, पृ० ५३ । ४ सं० बा० सं०,, भाग १, पृ० २१३ ।
- कं० ग्रं॰, पृ० १५०, १८४ ।
ॐ का ग्रं॰, पृ० २१०, ३६५ । ।