हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय ६. यारी साहब कविता में बड़ी मधुर व्यंजना हुई है। इनके पद्यों में और उनकी साहित्यिक चमक-दमक का अभाव होने पर भी लोच परंपरा काफी रहता है। सूफी शाह, हस्तमुहम्मदशाह, वुल्ला और केशवदास इनके शिष्यों में से थे। बुल्ला साहब और केशवदास की रचनाएँ प्रकाश में आई हैं। केशवदास का समय सं० १७४७ से १८२२ तक है । वे जाति के वैश्य थे। उन्होंने अमीबूट की रचना की । बुल्ला जाति के कुनवी थे। उनका असल नाम बुलाकी- राम था। फैजाबाद जिले के बसहरी ताल्लुके में गुलाल नामक एक राजपूत जमींदार के यहाँ हल जोतते थे। बुल्ला कभी-कभी काम करते-करते ध्यानस्थ हो जाते थे। काम से उनका ध्यान खिच जाता था गुलाल उसे कामचोर समझकर उसके ऊपर खूब डाट-डपट रखता था, पीटने में भी कसर नहीं करता था, यहाँ तक कि एक बार तो उसने उसे लात भी चखा दी। परन्तु धीरे-धीरे गुलाल को अपनी भूल मालूम होने लगी। जब उसे अनुभव हो गया कि बुल्लां एक साधारण हरवाहा नहीं है, बल्कि पहुँचा हुअा साधु है, तब वह उसका शिष्य बन गया। बुल्ला और गुलाल दोनों ने अपने हृदय के भावों को सीधे-सादे अनलं- कृत पद्यों में प्रकट किया है। दोनों का निवासस्थान भरकुड़ा गाँव था, जो जिला गाजीपुर में है। अवस्था में दोनों प्राय: एक समान रहे होंगे और केशवदास के समकालीन । प्रसिद्ध संत पलटू और उनके समसाम- यिक भीखा भी यारी की ही शिष्यपरंपरा में थे, क्योंकि वे गुलाल के शिष्य गोविंद के शिष्य थे। दोनों जगजीवनदास और उनके चलाये हुए दोनों सत्तनामी संप्रदायों में कुछ अन्तर समझना चाहिये । पहले जगजीवनदास का दादूदयाल के साथ उल्लेख हो चुका है। वह दादूदयाल का १०. जगजीवनदास शिष्य था। पिछले सत्तनामी संप्रदाय के संस्थापक द्वितीय को जगवीवनदास द्वितीय कहना चाहिए। यह जाति
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