वह हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय हैं। इनमें से रज्जबजी मुसलमान थे। उन्होंने सवंगी (साग) नामक एक अत्यंत उपयोगी बृहत संग्रह बनाया जिसमें निर्गुण संत-मता- नुकूल कविताएँ संगृहीत हैं, चाहे उनके रचयिता निर्गुणी हों या न हों। स्वयं रज्जबदास ने भी सवैये अच्छे कहे हैं । दादूपंथी साधुओं की दो प्रधान शाखाएँ हैं । एक भेषधारी विरक्त और दूसरे नागा । भेषधारी साधु संन्यासियों की तरह भगवा धारण करते हैं और नागा श्वेत वस्त्र धारण करते हैं तथा साधारण गृहस्थों की तरह रहते हैं। दोनों प्रकार के साधु ब्याह नहीं कर सकते, चेला बना- कर अपनी परंपरा चलाते हैं । नागा लोग जयपुर राज्य की सेना में अधिक संख्या में पाये जाते हैं। नराना में इनका जो शिष्य-समुदाय है, 'खानसा' कहलाता है; क्योंकि वह दादू की मूल शिक्षाओं की रक्षा किये हुए है । उत्तराधी नाम की भी उनकी एक शाखा और होती है जिसके संस्थापक बनवारी थे दादूपंथी न तो मुद्रों को गाड़ते हैं, न जलाते; वे उन्हें यों ही जंगल में फेंक देते हैं जिससे वह पशु-पक्षियों के कुछ काम आवे । प्राणनाथ जाति के क्षत्रिय थे और रहनेवाले काठियावाड़ के । उनका जन्म सं० १६७५ में हुआ था। सिंध, गुजरात और महाराष्ट्र में भ्रमण करने के बाद वे पन्ना में बस गये जहाँ महाराज छत्र- ५. प्राणनाथ सान ने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया। जान पड़ता है कि उन्हें मुसलमान-ईसाई सभी प्रकार के साधु-संतों का सत्संग लाभ हुआ था। उनकी रचनाओं से मालूम होता है उन्हें कुरान, इंजील, तौरेत आदि धर्म-पुस्तकों का ज्ञान था। फारसी लिपि में लिखा हुआ उनका एक ग्रंथ लखनऊ की प्रासफुद्दौला पब्लिक लाइब्रेरी में है जिसका नाम कलजमेशरीफ है। कलजमेशरीफ का अर्थ है मुक्ति की पवित्र धारा । यह हिंदी में बिगड़कर कुलजमस्वरूप हो गया है। इस ग्रन्थ का कुछ अंश उनके मुख्य निवास स्थान पन्ना में सुरक्षित
पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१५४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।