दूसरा अध्याय ६ u में कुछ फेरकार नहीं हुआ है तो यहाँ भाई बाला भी कबीर को नानक का गुरु मानते जान पड़ते हैं जिससे जिदा बाबा से कबीर ही अभिप्राय उहरता है। परंतु कबीर मंसूर में 'कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भू' का, वेद में कबीर के दर्शन कराने के उद्देश्य से कवीमनीपी हो गया है। इससे निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। कबीर पंथी लोग भी नानक को कवीर का चेला मानते है । बिशप वेस्कट ने २७ वर्ष की अवस्था में नानक का कबीर से मिलना माना है, किंतु कबीर का जो समय पीछे निश्चित किया जा चुका है उसके अनुसार यह ठीक नहीं जंचता । अतएव यदि जिंदा बाबा परमात्मा का नाम न होकर किसी साधु का नाम है तो वह साधु कीर न होकर कोई दूसरा होगा । यदि कबीर हो नानक के गुरु हों तो, उसी अर्थ में हो सकते हैं जिस अर्थ में वे सं० १७६५ के आस-पास गरीबदास के गुरु हुए थे। इसका इतना ही अर्थ निकलता है कि नानक कबीर के मतानुयायी थे और उनकी वाणी से उनको अध्यात्म-मार्ग में बहुत प्रोत्साहन मिला था। आदिग्रन्थ इस बात का साक्षी है कि यह बात सर्वथा सत्य है। गुरु नानक ने सं० १५६५ (१५३८ ई.) में अपना चोला छोड़ा । उनका मत सिखमत अथवा शिप्यमत कहलाया। उनके बाद एक-एक करके नौ और गुरु उनकी गद्दी पर बैठे; गुरु अंगद सं० १९९३ में, गुरु अमरदास सं० १६१५ में, गुरु रामदास सं० १६३१ में, गुरु अर्जुनदेव सं० १६३८ में, हरगोविंद सं० १६६३ में, हरराय सं० १७०२ में, गुरु हरकिसन सं० १७१८ में, गुरु तेगबहादुर सं० १७२५ में और सं० १७३२ में गुरु गोविंदसिंह । ये सब गुरु नानक की ही आत्मा समझे जाते थे। एक की मृत्यु पर दूसरे के शरीर में उसका प्रवेश माना जाता था। अपनी कविताओं में सबने अपनी छाप नानक रखी है । अपने आदि गुरु के समान सभी गुरु कवि थे। सबने अपनी कविताओं में नानक के भावों और प्रादों का पूर्ण अनुकरण किया है। पहले
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