दूसरा अध्याय .. हिन्दू-मुसलमान दोनों की धार्मिक संकीर्णता का विरोध किया । परन्तु अपने समय के वास्तविक तथ्यों के लिए वे आँखें बन्द किये हुए न थे । मिस्टर मैक्स आर्थर मेकॉलिफ़ का यह कथन कि सिखधर्म हिंदू धर्म से बिलकुल भिन्न है, अाज चाहे सही हो पर नानक का यह उद्देश्य न था कि ऐसा हो। नानक हिंदू धर्म के उद्धारक और सुधारक होकर अवतरित हुए थे, उसके शत्रु होकर नहीं । सुधार के वे ही प्रयत्न सफल हो सकते हैं जो भीतर से सुधार के लिए अग्रसर हों, नानक यह बात जानते थे। उन्होंने परंपरा से चले आते हुए धर्म में उतना ही परिवर्तन चाहा, जितना संकीर्ण ना को दूर करने तथा सत्य की रक्षा करने के लिए आवश्यक था। उन्होंने मूर्तिपूजा, अवतारवाद और जाति-पाँति का खंडन किया परन्तु त्रिभूति (ब्रह्मा-विष्णु-महेश) के सिद्धांत को सष्ट में स्वीकार किया। प्रणव ॐ को उन्होंने अपनी वाणी में आदर के साथ स्थान दिया । 'एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति' से वेदों में ऋषियों ने जो दार्शनिक चिंतन का. प्रारंभ किया था, उसी का पूर्ण विकास वेदांत में हुआ, और उसी का सार लेकर नानक ने ॐ सति नामु करता पुरुष निरभौ निरवैर अकाल मूरति अजूनि सैभं की भक्ति का प्रसार किया और एकेश्वरवाद का जो आकर्षण इस्लाम में था, उसके स्वधर्म में ही लोगों को दर्शन कराये, क्योंकि वे यह नहीं चाहते थे कि लोग एक प्रपंच से हटकर दूसरे प्रपंच में जा पड़ें। हिंदू धर्म में ही नहीं, इस्लाम में भी पाषंड और प्रपंच भरा हुआ था। आध्यात्मिक प्रेरणा के बिना प्रत्येक धर्म प्रपंच और पापंड है । जो बातें हिन्दू धर्म को सार्वभौम धर्म के स्थान से गिरा रही थीं उन बातों को हटाकर नानक ने फिर से शुद्ध धर्म .
- एका माई जुगत वियाई, तिन चेले परवान ।
एक संसारी, एक भंडारी, लाये दीवान ॥ -जपजी, 'ग्रंथ', पृ० २ । 4