दूसरा अध्याय ६३ दिया गया था। उसकी स्त्री का नाम सुलक्षणा था जिससे आगे चलकर उसके श्रीचंद और लक्ष्मीचंद नामक दो पुत्र हुए। श्रीचंद ने सिखों की उदासी नामक एक शाखा का प्रवर्तन किया जो गुरु नानक को भी मानते हैं और अपने आप को हिंदू धेरे से अलग नहीं समझते । लक्ष्मीचंद के वंश के लोग आज भी पंजाब के भिन्न-भिन्न भागों में पाये जाते हैं। नानक सांसारिक दृष्टि से बहुत बोदा समझा जाता था | चटसार (पाठशाला) में उसने कुछ नहीं सीखा । वह गृहस्थी के कुछ काम का न पाया गया । खेत रखाने भेजा जाता तो खेत चराकर अाता; बीज बोने के बदले वह किसी भूखे को दे आता । उसके बाप ने चाहा कि वह दूकान करे परन्तु दूकान भी थोड़े ही दिनों में चौपट हो गई। अंत में उससे निराश होकर उसके बाप ने उसे उसकी बहिन ननकी के यहाँ भेज दिया। ननकी का पति जयराम सरकारी नौकरी पर था। उसके कहने-सुनने से नानक को नवाब ने भंडारी का पद दे दिया। अपनी बहिन का मन रखने के लिए नानक अपने नए काम को बड़ी लगन के साथ करने लगा। ऐसा मालूम होता था कि नानक अब दुनियाँ में किसी काम का हो जायगा। परंतु लिखा कुछ और ही था। साधु-संतों की सेवा उसने अब भी न छोड़ी थी। उनका सत्कार करने के लिए वह सदा मुट्ठी खोले रहता था। इससे लोगों को उस पर संदेह होने लगा। उस पर सरकारी रुपये हड़प जाने का अभियोग लगाया गया। जाँच होने पर उसका पाई-पाई का हिसाब ठीक निकला। उसके मान की तो रक्षा हो गई पर उसका उचटा हुआ मन फिर दुनियाँ के धंधों में लगा नहीं; क्योंकि उसके भीतर की आँख खुल गई थीं। उसने देखा कि संसार में मिथ्या का राज्य है। अतएव मिथ्या के विरुद्ध उसने लड़ाई छेड़ दी । किंवदंतियों के अनुसार यह दिग्विजय करते हुए मक्का से आसाम और काश्मीर से सिंहल तक कई स्थानों में
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