दूसरा अध्याय के समकालीन थे। इनकी मृत्यु सं० १४८६ (ई० १४२६) में हुई। परंपरा के अनुसार फँसीवाले शेख तक्की ही कबीर के समकालीन थे। इनके समय की प्राचीनता के कारण विद्वानों को इसमें संदेह होता है। परन्तु सं० १५०५ (ई. १४४८) में कबीर की मृत्यु मानने से इस संदेह के लिए जगह नहीं रह जाती। उल्मा लोग भी इसी संवत् को मानते हैं माँनुमेंटल ऐंटिक्विटीज ऑव दि नार्थ वेस्टर्न प्रॉविंसेज़ के लेखक डाक्टर फ्यूर के अनुसार संवत् १५०७ (१४५० ई० ) में नवाब बिजलीखाँ पठान ने कबीर की कबर के ऊपर रौजा बनवाया था जिसका जीर्णोद्धार संवत् १६२४ (१५६७ ई०) में नवाब फिदाईखाँ ने करवाया। इससे भी इस मत की पुष्टि होती है। परन्तु खेद है कि डाक्टर फ्यूरी ने अपने प्रमाणों का उल्लेख नहीं किया। जान पड़ता है कि कबीर विवाहित थे। उनकी कविता में स्थान- स्थान पर 'लोई' शब्द आया है जिससे अनुमान किया जाता है कि लोई उनकी स्त्री का नाम है जिसे संबोधित कर ये कविताएँ कही गई हैं। परन्तु अधिक स्थानों पर लोई 'लोग' के अर्थ में आया है और 'लोग' लोक का अपभ्रंश रूप है । हाँ आदिग्रंथ में दो स्थल+ ऐसे हैं, जिनमें 'लोई' • कहते हैं कि कबीर कुछ दिन तक झूसी मे शेख तक़ी के पास रहे थे । खाने-पीने के संबंध में सत्कार का अभाव देखकर जब कबीर कुड़बुड़ाये तब शेखजी ने उन्हें शाप दे दिया जिससे वे छः मास तक संग्रहणी से ग्रस्त रहे । अब तक झूसी में एक कवीर नाला है । कहते हैं कि उन दिनों कबीर जिस नाले में जाया करते थे, वह यही था। + कहत कबीर' सुनहु रे लोई । अब तुमरी परतीत न होई ॥ ग्रन्थ, पृ०२६२ सुनि अंधली लोई बे पीर । इन मुडियन भजि सरन कबीर ।। --क० ग्रं० २६६, १०६'
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