। हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय जी के एक पद से मालूम होता है कि नामदेव और त्रिलोचन, रामानंद जी से पहले स्वर्गवासी हो गये थे। त्रिलोचन का जन्म मेकालिफ़ ने सं० १३२४ (१२६७ ई.) में माना है। त्रिलोचन कितने ही दीर्घ- जीवी क्यों न हुए हों, सं० १४६७ (१४१० ई०) से पहले ही अवश्य दिवंगत हो गये होंगे। नामदेव भी त्रिलोचन के समकालीन थे, यद्यपि मालूम होता है कि आयु में उनसे कुछ छोटे थे । सं० १४६७ से पहले बहुत काफी आयु भोगकर उनका भी दिवंगत होना असंभव नहीं । जनरल कनिंघम ने रामानंद के शिष्य पीपा का जो समय स्थिर किया है, वह भी इस समय के विरुद्ध नहीं जाता। इससे रामानंद जी की आयु ११० वर्ष की ठहरती है, जो उनके लिए बहुत बड़ी नहीं । यह प्रसिद्ध है कि रामानंद जी दीर्घायु हुए थे। नाभा ज ने भी कहा है- बहुत काल वपु धार के प्रनत जनम को पार दियो। श्री रामानंद रघुनाथ ज्यौं, दुतिय सेतु जगतरन कियो । कबीर के परवर्ती इन संत कवियों को सगुण और निर्गुण संप्रदाय के बीच की कड़ी समझना चाहिए । उनमें सगुणवादी और निर्गुणवादी दोनों से कुछ अंतर है। न तो वे सगुणवादियों की तरह परमात्मा की निर्गुण सत्ता की अवहेलना कर उसकी प्रतिभासिक सगुण सत्ता को ही सब कुछ समझते हैं और न निर्गुणियों की तरह मूर्ति-पूजा और अवतार- याद को समूल नष्ट ही कर देना चाहते हैं । यद्यपि अंत में वे सब बाह्य कर्मकांड का त्याग आवश्यक बतलाते हैं, परंतु उनके व्यवहार से यह मालूम होता है कि वे प्रारंभिक अवस्था में उसकी उपयोगिता को स्वीकार करते थे। परंतु इतना होने पर भी वे सब विशेषताएं, जिनके विकास से निर्गुण संत संप्रदाय का उदय हुआ, उनमें मूल रूप में पाई जाती हैं। जाति-पाति के सब बंधनों को तोड़ देने की प्रवृत्ति, अद्वैतवाद, भगवद- नुराग, विरक्त और शांत जीवन, बाह्य कर्मकांड से ऊपर उठने की इच्छा
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