. ३० हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय प्रकार व्यावहारिक तथ्य के रूप में ग्रहण करता है जिस प्रकार गाय, हाथी और कुत्ते के बीच के अंतर को। कौन कह सकता है कि इन पिछले जीवों में व्यावहारिक रूप में भी कोई भेद नहीं। परमात्मा के सामने मनुष्य मात्र की समता के दृढ़ पोषक स्वामी रामानंद को भी सामाजिक समता का उतना विचार न पाया। उन्होंने सामाजिक व्यवहार में भी कुछ सुधार किया सही, किंतु कथानकों का यह सुधार इतना भर था-दक्षिणी प्राचार्य खान-पान में छाछत का ही विचार नहीं रखते थे प्रत्युत परदे भी; या यों कहना चाहिये कि खान-पान में उनके स्पर्शाम्पर्श का विचार शरीर-स्पर्श में ही समाप्त न हो जाता था, वे दृष्टि-स्पर्श को भी हेय समझते थे । शूद्र के स्पर्श से ही नहीं, उसकी दृष्टि पड़ने से भी भोजन अपवित्र हो जाता है। स्वामी रामानंद जी ने दृष्टि-स्पर्श से भोजन को अखाद्य नहीं माना। उन्होंने केवल स्वयंपाक के नियम को स्वीकार किया. परदे के नियम को नहीं । कहते हैं कि स्वामीजी को तीर्थयात्रा, प्रचारकार्य इत्यादि के लिये इतना भ्रमण करना पड़ता था कि भोजन में परदे के नियम का पालन करना उनके जए दुःसाध्य था । कुछ लोगों का कहना है कि श्रीसंप्रदाय से अलग होकर एक नवीन संप्रदाय के प्रवर्तन का यही एकमात्र कारण था । कहते हैं कि एक बार के भ्रमण से लौटने पर उनके स-सांप्रदायिकों ने बिना प्रायश्चित्त किये उनके साथ भोजन करना अस्वीकार कर दिया था। स्वामी रामानंद जी मायश्चित करने के लिए तैयार न थे, अतएव नवीन पंथ-प्रवर्तन के सिवा समस्या को हल करने का कोई गौरवपूर्ण उपाय न सूझा, जिसके लिए उनके गुरु स्वामी राघवानंद की भी सहमति प्राप्त हो सकती । सामाजिक सुधार-पथ में वे इससे आगे बढ़ ही नहीं सकते थे। खान-पान तथा अन्य सामाजिक व्यवहारों में ब्राह्मण-ब्राह्मणों में भी भेद-भाव था, तब कैसे प्राशा की जा सकती थी कि स्वामी रामानंद शूद्रों और मुसलमानों के संबंध में भी उसे मिटा देते।
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