हिन्दी काव्य में निर्गुण संदाय भगवान की शरण में जाने का द्विगुण कारण विद्यमान शूद्रोद्वार था । उस पर दुगुना अत्याचार होता था | हिंदू होने के कारण मुसलमान उसके ऊपर अत्याचार करता था और शूद्र होने के कारण उसी का सधर्मी उच्च जाति का हिंदू। अतएव परमात्मा की शरण में जाने के लिए उसकी आकुलता का पारावार न रहा। मध्यकालीन भारत के धार्मिक इतिहास के पन्ने शूद्र भक्तों के नामों से भरे हैं, जिनका आज भी ऊँच-नीच सब बड़े आदर के साथ स्मरण करते हैं । शद्गोप ( नम्मालवार ), नामदेव, रैदास, सेन श्रादि नीच जाति के भक्तों का नाम सुनते ही हृदय में श्रद्धा उमड़ पड़ती है। हमारी श्रद्धा की इस पात्रता की सच्ची परख हमारी क्रूरता हुई । बाधाओं को कुचलकर शूद्ध आध्यात्मिक जगत् में ऊपर उठे। समाज की ओर से तो उनके लिए यह मार्ग भी बंद था। शूद्रों की तपस्या ने धीरे-धीरे परिस्थिति को बदलना प्रारम्भ कर दिया । तामिन भूमि में तो मुसलमानों के आने के पहले ही शैव संत कवियों तथा वैष्णव पानवारों को 'यो नः पिता जनिता विधाता' के वैदिक अादर्श की सत्यता की अनुभूति हो गई थी। जब सबका पिता एक परमात्मा है जो न्यायकर्ता है, तब ऊँच-नीच के लिए जगह ही कहाँ हो सकती है। उनकी धर्मनिष्ठाजन्य साम्यभावना के कारण यह बात उनको समझ में न आती थी। एक पिता के पुत्रों में प्रेम और समानता का व्यवहार होना चाहिए, न कि घृणा और असमानता का । अतएव वे सामाजिक भावना में वह परिवर्तन देखने के लिए उत्सुक हो उठे, जिससे परस्पर न्याय करने की अभिरुचि हो, सौहाई बढ़े और ऊँच-नीच का भेद-भाव मिट जाय । तिरु मुलर ( १० वीं शताब्दी) ने घोषणा की कि समस्त मानव-समाज में एक के सिवा दूसरा वर्ण नहीं और
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