पहला अध्याय ५४ । देता है, इससे यह परिणाम न निकालना चाहिए कि सूफी विचारधारा के निर्माण में हिंदू विचारधारा का कोई हाथ नहीं है । भारत में भी वेदांत के अंतर्गत शांकर मत का विकास बहुत पीछे हुश्रा । संभव है, ग्नोस्टिसिज्म और नियों-प्लटोनिज्म ने भी सूफी मत के उपर प्रभाव डाला हो । परंतु मिस्टर पोकॉक ने अपनी पुस्तक इंडिया इन ग्रीस (यूनान में भारत ) में दिखलाया है कि यूनान भारतीय प्रभाव से श्रोत-प्रोत है । कुरान ने विरक्ति का निषेध किया है । इसके विरोध में जिन कुछ लोगों ने मिलकर सन् ६२३ में तपोमय जीवन बिताने का निश्चय किया, उन्हें सूफी मानना भी ठीक नहीं । सूफी मत की विशेषता केवल तपोमय जीवन न होकर परमात्मा के प्रति अनन्य प्रेम-भावना है, जिससे समस्त संसार उन्हें परमात्मा-मय मा जूम होता है। जिसके श्रागे अंध-विश्वास और अंध-परंपरा कुछ भी नहीं ठहरने पाते और जिसका आधार अद्वैतमूलक सर्वात्मवाद है। जो हो, इस बात को सब विद्वान् मानते हैं कि सूफी मत का दूसरा उत्थान, जिसको विकास फारस में हुअा, अधिकांश में हिंदू प्रभावों का परिणाम है। यहाँ पर हमारा उसी से अधिक संबंध है। इस प्रकार सूफी मत का उदय अरब में और विकास फारस में बहुत कुछ भारतीय संस्कृति के प्रभाव से हुआ । उनका अद्वैतमूलक सर्वात्मवाद भारतीय दर्शन का दान है। नियोप्लेटौनिक सिद्धांतों ने उनकी दार्शनिक तृषा को उभाड़ा अवश्य होगा, परंतु उनके सिद्धांतों के अध्ययन से जान पड़ता है कि उसकी शांति भारतीय सिद्धांतों से ही हुई । जन्मांतरवाद, विरक्त जीवन, फरिश्तों के प्रति पूज्य भाव (बहु देव-वाद) ये सब इस्लाम के विरुद्ध हैं और सूफी संप्रदाय को बाहरी संसर्ग से प्राप्त हुए हैं । इनमें से विरक्त जीवन तथा फरिश्ता-पूजन में ईसाई प्रभाव मानना ठीक है परन्तु जन्मांतरवाद स्पष्ट ही भारतीय है। उनका 'फना' भी बौद्ध 'निर्वाण' का प्रतिरूप है। परंतु बौद्ध निर्वाण
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