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विग्रह ८७

एक दिन वह कमलों के सिंहासन पर अपने परिवार तथा मन्त्री सारस के साथ बैठा था। परस्पर विनोद-वार्ता चल रही थी कि दीर्घमुख नाम का वगुला कही से आया और हिरण्यगर्भ को प्रणाम करके बैठ गया। हिरण्यगर्भ : दीर्घमुख, तुम देशान्तरों का भ्रमण करके आए हो, कोई नवीन समाचार सुनाओ। दीर्घमुख : महाराज, एक आवश्यक समाचार सुनाने के लिए ही मै उपस्थित हुआ हूँ। आप ध्यान से सुनें: जम्बुद्वीप में विन्ध्याचल नाम का एक पर्वत है। उस पर चित्रकर्ण नाम का एक मयूर राज्य करता है। उसकी राजधानी का नाम है दग्धारण्य । मैं भ्रमण करता हुआ वहीं पहुँच गया । वह स्थान मुझे बहुत रमणीक प्रतीत हुआ। अतः वही निश्चिन्त होकर धूमने लगा । मुझे इस तरह धूमते देखकर वहां के गुप्तचर मेरे पास आए और मुझ से पूछा: तुम कौन हो? ? मैने कहा : मै कर्पूरद्वीप के चक्रवर्ती राजा हिरण्यगर्भ का सेवक हूँ । देश-विदेश घूमने की इच्छा से मैं यहां आया हूँ। इतना सुनना था कि सब ने मुझे चारों ओर से घेर लिया और प्रश्न करने लगे। एक ने पूछा : आपके और हमारे देश में आपको कौन-सा देश सुन्दर प्रतीत हुआ, कौन-सा राज्य अधिक भाग्यशाली दिखाई पड़ा। मै बोला : आप यह क्या कहते है ? आपके देश और हमारे देश में, आपके राजा और हमारे राजा मे पृथ्वी-आकाश का मन्तर है। हमारा देश स्वर्ग है। हमारे देश का राजा हिरण्यगर्भ