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७८ हिता५५ भी अपने से अधिक बलवान् से झगड़ा नहीं करना चाहिए। शास्त्रों में कहा है कि अयोग्य कार्य का प्रारम्भ, बन्धुओं के साथ शत्रुता, बलवान् से वैर और नारी पर विश्वास, ये चारों मृत्यु के द्वार है। टिटीहरी ने कई प्रकार से टिट्टिभ को समझाया पर वह ज़िद्दी बिल्कुल नही माना - और अहंकारपूर्वक वोला : तुम चिन्ता न करो। अपने स्थान को छोडकर मै कही भी नहीं जाऊँगा। समुद्र जव लड़ने आयेगा तव मैं उससे स्वयं निवट लंगा। टिट्टिभ-दम्पति की बाते सुनकर समुद्र को टिट्टिभ का वल जानने की उत्कण्ठा हुई । उसने प्रसव के पश्चात् टिटीहरी के अण्डे छीन लिए । अण्डो के छिन जाने से टिटीहरी को बहुत दुःख हुआ। वह रो-रोकर विलाप करने लगी। वह बोली : स्वामी, अब मै क्या करूँ ? मैने पहले ही कहा था कि आप इस स्थान को छोड़ दें। पत्नी को आश्वासन देते हुए टिट्टिभ ने कहा : तुम रोओ मत, मै तुम्हारे अण्डे अवश्य वापस ला दूंगा।" इस तरह पत्नी को समझा-बुझाकर टिट्टिभ ने अपने साथी पक्षियों को एकत्रित किया और उनको साथ लेकर गरुड़देव के पास पहुँचा। सव पक्षियों ने मिलकर गरुड़देव से निवेदन किया और विलाप करते हुए टिट्टिभ बोला : महाराज, समुद्र ने निरपराध ही मुझे दण्ड दिया। मेरे अंडों को बहाकर ले गया। अपने परिवार का दुःख गरुड़ से देखा न गया। वह भग- वान् विष्णु के पास गए और टिट्टिभ के अंडे दिलाने की प्रार्थना