६४ हितोपदेश पिगलक : मित्र, होगा नहीं, उन्होंने खा लिया होगा। संजीवक : तो क्या वे लोग अकेले ही इतना मांस खा गये होगे? पिंगलक : कुछ खा लिया होगा, कुछ वांट दिया होगा और कुछ फेक दिया होगा। संजीवक : मित्र, यह तो अनुचित है । मन्त्री कमण्डलू की भॉति होना चाहिये । विना विचारे व्यय करने वाले कुबेर का भाण्डार भी एक दिन समाप्त हो जाता है। संजीवक की बात सुनकर स्तब्धकर्ण भी पिंगलक को समझाते हुए बोला : भाई, चिरकाल से कार्यरत सेवक के हाथ मे कोष नही देना चाहिये । इनको तो सन्धि-विग्रह के कार्यो मे लगाओ। कोपाध्यक्ष के कार्य के लिये तो यह तृणाहारी संजीवक ही 7 योग्य है। स्तब्धकर्ण की इस सलाह पर पिगलक ने संजीवक को कोषाध्यक्ष नियुक्त कर दिया। अब दमनक और करटक की स्वतन्त्रता और स्वार्थ-परायणता समाप्त हो गई। वह सोचने लगे कि अव क्या किया जाय ? उनके आश्रित भाई-बन्धुओं का सुख भी अव छिन गया । करटक ने दुखी होकर पूछा : मित्र, अव क्या करना चाहिये ? दमनक : यह तो अपने किये का ही फल है। इसके लिये किसी दूसरे को दोष देना व्यर्थ है ? वीर विक्रम और साधु भी तो अपने किये से दुःखी हुए। करटक : वीर विक्रम की क्या कथा है ? दमनक : सुनो
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