१५० हितोपदेश । पास है ? कौए ने सिह के कान में कहा : चित्रकर्ण । सिंह : यह कभी नही हो सकता। हमने चित्रकर्ण को अभयदान दिया हुआ है । अभयदान से बढ़कर तो गौदान अथवा अन्नदान भी श्रेयस्कर नहीं। मैं उसे कभी भी नही मार सकता। कौआ : श्रीमान् जी! आप चिन्ता क्यों करते है ? आप उसकी हत्या न करे । वह स्वयं आपके लिए अपना शरीर समर्पित करेगा। सिंह शान्त हो गया। कौआ अगले दिन समय पाकर सब साथियों को लेकर सिह के सम्मुख उपस्थित हुआ। कौआ : महाराज, कहीं कुछ भी खोजे नहीं मिलता। आप इस भांति कब तक भूखे रहेंगे । अब तो आप मुझे ही खालें । अन्यथा आपकी दया से पला हुआ यह शरीर फिर कब काम आयेगा? सिंह : भाई, मै स्वयं मर सकता हूँ, पर कभी ऐसा नहीं कर सकता। कौए के बाद गीदड़ और गीदड़ के बाद व्याघ्र ने ऐसा ही कहा । अपनत्व दिखाने की इच्छा से चित्रकर्ण (ऊंट) ने भी उसी भांति कहा । उसके कहते ही व्याघ्र ने उसे मार डाला और सबने मिलकर खा लिया। x x x x M वस ठीक, इसी भांति धूर्तों की बात सुनकर ब्राह्मण के मस्तिष्क में भी भ्रम उत्पन्न हो गया। वह अभी थोड़ी दूर ही और चल पाया था कि उसे
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