सन्धि १४३ बद्ध होने के कारण उन्होने उन दोनों को पार्वती सौंप दी। पार्वती के अनुपम दैवी सौन्दर्य को देखकर दोनों उनके रूप पर लटू हो गए। दोनो ने 'यह मेरी हैं 'यह मेरी है' कह- कर शोर मचाना प्रारम्भ कर दिया। दोनों को इस भांति लड़ते देखकर शंकर भगवान् ने एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किया और उनकी ओर चल दिए। वृद्ध को अपनी ओर आते देखकर दोनों उसे मध्यस्थ बनाने के लिए बोले: ब्राह्मण देवता, कृपया हमारी बात सुने ! ब्राह्मण : कहो भाई, तुम तो ऐसे प्रतीत होते हो जैसे लड़ने को उतारू हो। पहला दैत्य : महाराज, मैने इस सुन्दरी को तप करके प्राप्त किया है । अतः यह मेरी है। दूसरा दैत्य : जी नही, मैने इससे अधिक तप किया है अत: यह मेरी है। ब्राह्मण : भाई, तुम दोनो ने साथ-साथ तप किया है । अव यह निर्णय कठिन है कि किसने अधिक तप किया है। अत. अव आप लोग परस्पर युद्ध करे। इस तरह जो अधिक बलवान् हो उसे पार्वती मिल जाये। फिर क्या था? दोनो ने अपनी-अपनी गदा सम्भाल ली और लडने लगे। भगवान् शंकर इन दोनो की पापमय प्रवृत्ति को देखकर मुस्करा रहे थे। इतने मे ही दोनों एक-दूसरे के असह्य वार से घायल होकर सदा के लिए सो गए। भगवान् शकर अपनी पार्वती को लेकर पुन. हिमालय की ओर बढ़ चले। न)
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