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१४.. हितोपदेश डण्डा लेकर उसकी रखवाली करने लगा । वह बार-बार डण्डा हिला रहा था और सोच रहा था- जब मै इन सत्तुओं वाले सकोरे को वेचूंगा तो मुझे दस कौड़ियाँ प्राप्त होगी। फिर मै इसी कुम्हार से कौड़ियों के घड़े और सकोरे खरीद लूगा । उनको बेचूंगा और इस तरह कई बार बेचने पर जब मेरे पास बहुत पैसे हो जायेगे तो में कपड़े की दुकान खोल लूंगा । इसी प्रकार एक दिन मै देखते- ही-देखते लखपति हो जाऊँगा। लखपति होकर मै चार शादियां करूँगा । उसमें से जो सबसे अधिक सुन्दर होगी, मैं उसे हृदय से प्रेम करूंगा । वे तीनों उस सुन्दर पत्नी से डाह करेंगी, आपस में लड़ेगी और झगड़ेंगी । उस समय जब वह मेरे वार-बार मना करने पर भी नहीं मानेगी तब मै डण्डे से ऐसे पीटूंगा । इनना सोचकर ज्योंही उसने डण्डा चलाया, उसके सकोरे के साथ-साथ कुम्हार के बर्तन भी फूट गये। डण्डे और बर्तनों की आवाज सुनकर कुम्हार वहाँ आया और पण्डितजी को फटकारते हुए वोला : कृपया आप हमारे घर फिर कभी न आइएगा। x x x X गृद्ध बोला : इसीलिए मैं कहता हूँ कि कभी भी भविष्य का विचार करके प्रसन्न नहीं होना चाहिये ! चित्रवर्ण : तो मन्त्री तुम्हीं मुझे सलाह दो कि मै क्या करूँ ? मन्त्री : राजन् मेरी सलाह तो यह है कि अब आप हिरण्यगर्भ से संधि कर ले । कारण यह है कि अब वर्षाऋतु प्रारम्भ होने वाली है। ऐसे समय में युद्ध होने पर हमें अपने देश जाना भी कठिन हो जायेगा । हमने विजय प्राप्त की। -4