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११८ हितोपदेश चित्रवर्ण को अन्त में हार मानकर पीछे हटना पड़ा। अपनी इस पराजय से चित्रवर्ण को वड़ा दुःख हुआ। वह महामन्त्री गृद्ध के पास गया और बोला: महामन्त्री, युद्ध के समय इस भांति हमारी उपेक्षा करना तुम्हें उचित नहीं। यदि मैने कभी तुम्हें कुछ कह भी दिया तो आपत्ति के समय उससे रुष्ट नहीं होना चाहिए। मन्त्री : राजन्, तुम्हें राजकार्य में निपुणता नहीं। मूर्ख राजा भी यदि विद्वानों का आदर करता है तो उसे भी लक्ष्मी प्राप्त होती है। नदी के किनारे रहनेवाला वृक्ष सदा हरा- भरा ही रहता है। आपने अपनी सेना और वल पर घमंड किया और मेरा अपमान किया। अत. आपको यह पराजय प्राप्त हुई। चित्रवर्ण हाथ जोड़कर मन्त्री से वोला : मन्त्री, यह मेरा ही अपराध है। मै अव आप से प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे अब उचित सलाह दें। मेरे विचार में तो अब वापस अपने देश को ही जाना अच्छा होगा। मन्त्री : राजन् ! आप घवड़ाएँ नही । सन्निपात के बीमार के सामने वैद्य की कुशलता और शत्रु की सफल नीति को असफल बनाने में मन्त्री की कुशलता होती है। अच्छे समय में तो कौन कार्य-पटु नहीं होता ? अब आप वापस लौटने का विचार न करें। मै प्रतिज्ञा करता हूँ कि आपको शत्रु पर विजय दिलाऊँगा। राजा : तो अब हम क्या करें ? मन्त्री : शीघ्र ही राजहंस का किला घेर लो। x x x X