विग्रह ११७ प्रातःकाल होते ही क्षत्रिय ने एक नाई को बुलाया, क्षौर करवाकर वह उसी मार्ग की ओर चल पड़ा। उसके पीछे नाई भी हो लिया। कुछ ही समय वाद उसी मार्ग से एक भिक जाता हुआ दिखाई दिया । क्षत्रिय ने उसे पीटना प्रारम्भ किया। वह भिक्षुक पिटते-पिटते मणि-रत्नों से भरा हुआ एक सुवर्ण घट वन गया। इस दृश्य को देखकर नाई ने विचार किया-धन पाने की तो यह बहुत ही आसान और सुन्दर रीति है। अगले दिन वह भी प्रात काल हाथ मे डन्डा लेकर निकल पड़ा। संयोगवश उस दिन भी एक भिक्षुक उस ओर से जा रहा था। नाई ने उसे पीटना प्रारम्भ किया और इतना पीटा कि वह मर गया। अयोध्या के राजा ने उसे इस अपराध में मृत्यु-दण्ड दे 7 दिया। x x x X 1 हिरण्यगर्भ : अस्तु, छोड़ो इस झगड़े को। इस समय क्या करना चाहिए ? मन्त्री : मैने अभी-अभी दूत से सुना है कि राजा चित्रवर्ण ने अपने महामन्त्री का तिरस्कार किया। इस अपमान के कारण महामन्त्री उसे त्याग कर वन को चला गया। अब हमें उसे मार्ग में घेर लेना चाहिए। इस भांति वह दुष्ट शीघ्र ही पराजित हो जायगा। मन्त्री की मन्त्रणा के अनुसार राजा हिरण्यगर्भ ने अपनी सेना समेत चित्रवर्ण को मार्ग में ही घेर लिया। दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में राजा चित्रवर्ण के अनेकों सैनिक काम आए उसके वहुत से सेनापति वीरगति को प्राप्त हुए।
पृष्ठ:हितोपदेश.djvu/११२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।