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११४ हितोपदेश मेरा पुत्र आपकी बलि के लिए उपस्थित है । आप इसे स्वीकार करे । इतना कहकर वीरवर ने उसी तलवार से अपने पुत्र का गला काट दिया। वीरवर कुछ समय तक शान्त खड़ा रहा । फिर उसने सोचा-विना पुत्र के मेरा जीवन भी निरर्थक है। अव क्या जीवन में मुझे ऐसा सौभाग्यशाली और पितृभक्त पुत्र प्राप्त हो सकेगा? फिर इस अपुत्र जीवन से क्या लाभ ! वीरवर ने तभी अपने खड्ग से अपनी हत्या कर ली। सती पत्नी भला फिर कैसे रह सकती थी। उसने भी उसी समय अपने पति के चरण-चिह्नों का अनुकरण किया। इस भयानक नर-मेध को देखकर राजा के रोंगटे खड़े हो- गये । वह सोचने लगा- मेरे जैसे तो सहस्रों प्राणी इस संसार में क्रमशः आते-जाते रहते हैं । इस पर राजपुत्र के समान न तो कोई पैदा हुआ है और न हो ही सकेगा। फिर मेरे जीवन से क्या लाभ ? जिसने वीरवर जैसे सेवक को हाथों से खो दिया। दुःखी होकर राजा ने भी अपना सिर काटने के लिये तल- वार उठाई। परन्तु उसी समय सर्वमंगला देवी ने प्रकट होकर राजा का हाथ पकड़ लिया, और वोली: राजन्, मै तेरे साहस से अत्यधिक प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हे आशी- र्वाद देती हूँ कि तुम्हारी मृत्यु के बाद भी तुम्हारी राज-लक्ष्मी युगों तक अविचल रहेगी। भगवती को साष्टांग प्रणाम करते हुए राजा वोला : भगवती! मुझे अपना जीवन अथवा राज्य नही चाहिये । यदि आप प्रसन्न है तो कृपा करके इन तीनों को पुनः जीवित कर देवें । theo