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११२ हितोपदेश वीरवर : जैसो महाराज की आजा ! इतना कहकर वीरवर विना सोचे-समझे ही चल दिया। वीरवर के चले जाने के कुछ ही क्षणों के उपरान्त राजा को विचार आया कि मैने इस घोर अन्धकार में वीरवर को अकेले ही भेजकर अच्छा नही किया। भावी को कोई नहीं जानता ? कहीं वीरवर पर कोई मुसीवत न आजाए ? राजा स्वयं उठा और खड्ग हाथ में लेकर वीरवर के पीछे-पीछे चुपचाप चलने लगा। उसने देखा: उस घने अन्धकार में वहुमूल्य भूपणों से सुसज्जित एक रूपवती युवती को वीरवर ने देखा। वीरवर उसके पास गया और मीठे -मीठे शब्दों से उसे धैर्य दिलाते हुए बोला : देवि तुम कौन हो? यहाँ अकेली क्यों बैठी हो? रो क्यों रही हो ? स्त्री : मै राजा शूद्रक की राज-लक्ष्मी हूँ। वहुत समय तक इसके अधिकार में रही । अव किसी दूसरे राजा के पास जाना चाहती हूँ। वीरवर : देवि, प्रत्येक हानि से वचने के उपाय हुआ करते है। आप इस राज्य को छोड़कर जा रही हैं। यह तो इस राज्य की सबसे बड़ी हानि है । क्या इससे बचने का कोई उपाय नहीं ? लक्ष्मी : हाँ है । पर क्या तुम उस उपाय को सिद्ध कर सकोगे? वीरवर : क्यों नहीं ? मैं जिसका अन्न खाता हूँ उसके लिए क्या नहीं कर सकता? लक्ष्मी : तब तो केवल एक ही उपाय है । तुम अपने पुत्र गक्तिधर को भगवती की वलि दे दो।