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विग्रह १०५ . -अब उसने उसे उठाया और कुछ दूर पर फैक आया । गीदड़ भी सिर पर पैर रखकर भाग खड़ा हुआ। भागते-भागते वह बहुत दूर निकल गया । वृक्ष के नीचे बैठकर वह विश्राम करने लगा। वह सोचने लगा- मेरा गरीर नीला तो हो ही गया है; क्यों न इससे कोई लाभ उठाऊँ । कुछ समय इसी प्रकार सोचकर वह उठा और अकड़कर गीदड़ों के पास जाकर वोला : हे वनवासियो, मेरी ओर देखो। वन-देवता ने समस्त बूटियों का रस निकालकर मुझे स्नान कराया है । अतएव मेरा सुन्दर शरीर अब नीला पड़ गया है । वन-देवता ने मुझे आशीष देते हुए इस वन का राज्य भी सौप दिया है । आप लोगों के लिए मेरी आज्ञा है कि आज से आप लोग मेरे शासन में रहें और अपने को मेरी प्रजा समझें। वन के समस्त गीदड़ों ने तथा व्याघ्र, चीता, शेर आदि सब पशुओं ने गीदड़ को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उसे दैवी शक्ति का प्रतिनिधि समझकर अपना राजा स्वीकार कर लिया। एक समय राजा कर्बुर की राजसभा आयोजित थी। वन के सिंहादि सव पशु उसमे उपस्थित थे। कवूर अहङ्कार मे चूर हो गया और उसने अपने साथी गीदड़ों का तिरस्कार कर दिया । गीदड़ भला यह कव सह सकते थे। उन्होने मिलकर एक और सभा का आयोजन किया। सभा में एक गीदड़ ने कहा : भाइयो, मैं विश्वास दिलाता हूँ कि इसे सिंह आदि वल- वान् पशुओं के हाथ अवश्य ही मरवा दूंगा।