पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/१९१

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चाहिए और कोई व्यक्ति शासक नहीं होना चाहिए । इसमें शासन का आधार नागरिकों का पारस्परिक निश्चय या सामा- जिक बंधन माना जाता था। यह प्रजातंत्र प्रणाली की मानों चरम सीमा थी और बहुत से अंशों में इसका प्रादर्श टॉल्स्टाय के आदर्श के साथ बहुत कुछ मिलता जुलता था। महाभारत

  • शांतिपर्व अध्याय ५६ में कहा है कि प्रचलित युग के प्रारंभ

में न तो कोई राज्य था और न कोई राजा था और न कोई व्यक्ति शासन-कार्य के लिये नियुक्त किया जाता था । केवल कानून या धर्मशास्त्र का ही शासन होता था। परंतु पारस्परिक विश्वास के अभाव के कारण इस प्रकार का कानून या धर्म का शासन अधिक दिनों तक न चल सका। इसी लिये राजा द्वारा शासन की प्रथा प्रचलित हुई। एक दूसरे स्थान पर यही सिद्धांत इस रूप में प्रतिपादित किया गया है -~-अराजक राज्य के निवासी जब राजद्रोही और उपद्रवी होने लग गए, तब उन्होंने उपद्रवों और अपराधो को रोकने के लिये एक समूह या सभा में कुछ विशिष्ट निश्चय स्वीकृत किए और कानून बनाए । आपस में एक दूसरे का विश्वास उत्पन्न करने के लिये सब जातियों ने मिलकर कुछ बंधन निर्धारित करके उनके अनुसार जीवन निर्वाह करना निश्चित किया। परंतु जब वे लोग इस प्रणाली के कार्य से संतुष्ट नहीं हुए, तब उन्होंने जाकर ब्रह्मा से शिकायत की। इस पर ब्रह्मा ने उनसे कहा कि तुम लोग अपना एक प्रधान या शासक नियुक्त करो; और इस प्रकार एक राजा निर्वाचित हुथा। यह उल्लेख ६७ वें अध्याय मे का है। ये दोनो प्रवाद एक ही सिद्धांत के संबंध में हैं। नियतस्त्वं नरव्याघ्र शृणु सर्वमशेषतः । यथा राज्यं समुत्पन्नमादी कृतयुगेऽभवत् ।।