पृष्ठ:हिंदुई साहित्य का इतिहास.pdf/१७०

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कबीर [ १५ . । पक्षपात न बचन सबमदि के हित की भाषा ॥ श्रारूढ दशा जगत पर मुख देखी नादिन भनी । कवीर कानि राखी नहीं बनम घट दरशनी ॥ टीका एक ब्राह्मण अपने गुरु रामानन्द के समीप बैठा था । गुरु और ब्राह्मण में प्रायः लंबी बातचीत हुआ करती थी । एक बालविधवा ने ब्राह्मण से उस सन्त के दर्शन करने की प्रार्थना की एक दिन वह उसे वहाँ ले गया । उन्हें देखते ही उसने साष्टांग दंडवत किया । गुरु ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा : तेरे गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न होगा।—किन्तु, ब्राह्मण ने कहा कि यह तो बालविधवा है । गुरु ने कहा, कोई बात नहीं, मेरा वचन थर्थ नहीं जायगा । उसके एक पुत्र होगा; किन्तु इसका गर्भ कोई जान न सकेगा, और इसकी बदनामी न होगी । इसका पुत्र मानवता की रक्षा करेगा ।' रामानन्द के बचनानुसार वह स्त्री गर्भव्रती हुई दस महीने समाप्त हो जाने पर उसके पुत्र उत्पन्न हुआ, किन्तु उसने अपना पुत्र एक तालात्र की लहरों में फेंक दिया । एक अली नामक जुलाहे ने इस बच्चे को पाया, और उसे उठा लिया ! यह बच्चा कबीर थे। बाद को एक नाकाशबाणी उन्हें सुनाई दी, जिसने उनसे कहा : ‘रामानन्द के शिष्य बनो, तिलक लगानो, और उनके संत संप्रदाय का चिह्न धारण करो ।’ कबीर ने - इस प्रसिद्ध व्यक्ति के संबंध में एच० एव॰ विल्सन द्वारा हिन्दुओं के संप्रदायों विवरण ( Memoir) देखिए'एशियाटिक रिसचेंज’ की पर लिखा गया। जिल्द १७ । २ ये दो शब्द भारत में भलो भाँति -साथ चलते हैं, क्योंकि वहाँ प्राय: बच्चों का विवाह हो जाता हैजिनमें वयः संधि से पूर्व सहबाल नहीं होता।